Opinion: नॉनवेज डेयरी प्रोडक्ट- भारत के लिए आस्था और अमेरिका के लिए क्या है अहमियत 

भारत में डेयरी सेक्टर का मतलब गांव, गाय और गोबर है. ये तीनों तत्व भारत की आत्मा में अनंत काल से रचे बसे हैं. सिर्फ गांव वालों के लिए ही नहीं, बल्कि हर भारतीय के लिए ये आस्था के केंद्र में समाए हैं. ऐसे में ट्रंप द्वारा अमेरिका के मांसाहारी डेयरी प्रोडक्ट के लिए भारतीय बाजार को खोलने की हर संभव कोशिश का नाकाम होना ही उसकी नियति है.

नोएडा | Updated On: 17 Aug, 2025 | 12:48 PM
भारत और ब्रिटेन के बीच मुक्त व्यापार समझौता हो चुका है. अब इस भूमिका को आधार बना कर ही भारत और अमेरिका के बीच व्यापार समझौते को लेकर कूटनीति का पारा लगातार चढ़ता जा रहा है. एक ओर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत पर दबाव बनाने के लिए हर दिन नई नई बंदर घुडकी दे रहे हैं, वहीं भारत में मोदी सरकार ने भी इस मुद्दे पर झुकने से सीधे तौर पर इंकार कर दिया है.
ऐसे में अब दोनों देशों के बीच तात्कालिक तौर पर टकराव और गतिरोध उभरने लगा है. भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया पर दबाव बनाने के लिए अमेरिका के खांटी कारोबारी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप सभी देशों को एक ही तराजू में तौलने की कोशिश कर रहे हैं. इस कड़ी में वह अपने कथित राष्ट्रवाद को भी हथियार बना रहे हैं. इसके लिए उनके द्वारा दिए जा रहे अतिवादी बयानों के क्रम में ट्रंप ने भारत की तेजि से उभरती अर्थव्यवस्था को “मृत प्राय” तक बता दिया। दरअसल ट्रंप अपने बयानों से खुद को ही बेनकाब कर रहे हैं.
“अमेरिका फर्स्ट” के नाम पर उन्होंने राष्ट्रवाद के मूल भाव से अनभिज्ञ अमेरिकी मतदाताओं को भले ही गुमराह करके चुनाव जीत लिया हो, लेकिन अब भी चुनाव अभियान वाले मोड में हो रही उनकी बयानबाजी से उनके छद्म राष्ट्रवाद की असलियत सामने आने लगी है. दुनिया अब यह समझने लगी है कि ट्रंप की फितरत में राष्ट्रवाद कहीं नहीं है, बल्कि उनके दिल दिमाग में महज कारोबार की ही धारा बह रही है. ट्रंप की सौदेबाजी का सबसे ज्वलंत प्रमाण वे शांति समझौते हैं, जिनके पक्षकारों के बीच वह एक हाथ से शांति समझौता कराते हैं और दूसरे हाथ से तुरंत उन्हीं से अपने लिए नोबेल शांति पुरस्कार की अनुशंसा भी करा लेते हैं.
भारत के साथ व्यापार समझौते की समीक्षा के दौरान इन तथ्यों का जिक्र इसीलिए किया गया है ताकि इससे ट्रंप की फितरत और भारत की “वसुधैव कुटुम्बकम” से जुड़ी राजनीतिक एवं सामाजिक मान्यता के महत्व को रेखांकित किया जा सके. भारत के साथ ट्रंप के व्यापारिक मंसूबे इसी मान्यता के कारण पूरे होते नहीं दिख रहे हैं.
भारत में डेयरी सेक्टर का मतलब गांव, गाय और गोबर है. ये तीनों तत्व भारत की आत्मा में अनंत काल से रचे बसे हैं. सिर्फ गांव वालों के लिए ही नहीं, बल्कि हर भारतीय के लिए ये आस्था के केंद्र में समाए हैं. ऐसे में ट्रंप द्वारा अमेरिका के मांसाहारी डेयरी प्रोडक्ट के लिए भारतीय बाजार को खोलने की हर संभव कोशिश का नाकाम होना ही उसकी नियति है. यही वजह है कि ट्रंप का टैरिफ टैरर भारत में अपना असर नहीं दिखा पा रहा है. वैसे तो ट्रंप के साथ कारोबार से जुडे लगभग सभी क्षेत्रों में व्यापार समझौते को लेकर आम सहमति बन गई है. इस दिशा में बीते चार महीनों से चल रही कवायद के फलस्वरूप भारत और अमेरिका साल 2030 तक आपसी व्यापार के स्तर में चार गुना तक इजाफा करने की संभावनाओं को टटोल भी चुके हैं.
दोनों देशों के बीच व्यापारिक रिश्तों के महत्व को इसी बात से समझा जा सकता है कि साल 2024 में भारत का कुल निर्यात 800 अरब डॉलर था. इसमें अकेले अमेरिका के साथ सवा सौ अरब डॉलर का कारोबार किया गया. इसमें भारत द्वारा अमेरिका को किया गया लगभग 85 अरब डॉलर का निर्यात और 42 अरब डॉलर का आयात शामिल है। इससे यह स्पष्ट है कि भारत अमेरिका से जितनी कीमत की वस्तुएं आयात करता है, उससे दोगुनी कीमत की वस्तुओं का निर्यात करता है. मतलब, भारत को अमेरिकी वस्तुओं की जितनी दरकार है, अमेरिका को उससे लगभग दोगुना ज्यादा भारतीय वस्तुओं की जरूरत है। इसके बावजूद भारत सरकार ने अमेरिका के साथ टैरिफ के संतुलित निर्धारण को लेकर लगभग सभी क्षेत्रों में ट्रेड डील को मंजूरी दे दी. सिर्फ डेयरी और जीएम क्रॉप को लेकर भारत ने अपनी जायज आपत्ति दर्ज कराई है.
अमेरिका जिस प्रकार से जीएम तकनीक से उपजाए गए मक्का और सोयाबीन को भारत में डंप करने की फिराक में है, उसे देखते हुए भारत की आपत्ति को किसी भी नजरिए से नाजायज नहीं कहा जा सकता है. यूरोप सहित दुनिया के तमाम विकसित देश अभी भी जीएम फूड के सेहत पर पडने वाले असर को लेकर आश्वस्त नहीं है. इस वजह से इन देशों ने जीएम फूड को मंजूरी नहीं दी है. ऐसे में भारत भी अमेरिका के मक्का और सोयाबीन को न तो अपनी आबादी के उपभोग लिए और ना ही चारे के रूप में पशु धन को खिलाने की मंजूरी दे सकता है. भारत के लिए ट्रंप के टैरिफ टैरर को स्वीकार करने में दूसरी बडी बाधा डेयरी उत्पाद हैं.
अमेरिका के डेयरी उत्पादों में प्रोटीन की मात्रा को बढ़ाने के लिए मांसाहारी तत्वों का इस्तेमाल किया जाता है. साथ ही अमेरिका में दुधारू पशुओं की दूध देने की क्षमता को बढाने के लिए उन्हें दिए जाने वाले चारे में भी मांसाहारी तत्वों को मिलाया जाता है. वहीं भारत के पशु धन में पहले पायदान पर गाय को रखा गया है. भारतीय जनमानस में गाय वस्तुत: आस्था की विषय वस्तु है. गाय को हर भारतीय भले ही पालता न हो, लेकिन हर घर में गाय का स्थान पूजनीय है. इतना ही नहीं, गाय के साथ साथ हर दुधारू पशु के दूध को भी आस्था से अलग नहीं रखा गया है. भगवान को लगने वाले प्रसाद में दूध का इस्तेमाल किसी न किसी रूप में जरूर किया जाता है. ऐसे में भारत के लिए पशुधन और उससे मिलने वाला दूध, दोनों ही आस्था के केंद्र बिंदु हैं.
इससे इतर, डेयरी उत्पादों से जुड़ा एक आर्थिक पहलू भी है, जो अमेरिका और भारत के डेयरी सेक्टर को बुनियादी रूप से अलग धरातल पर खड़ा करता है. अमेरिका में पिछले 3 दशक में छोटे डेयरी फार्म को हतोत्साहित करके बंद कर दिया गया. वहां सरकारों ने कम से कम 50 गाय वाले बड़े डेयरी फार्मों को ही प्रश्रय दिया. इसके पीछे डेयरी क्षेत्र को अहम आर्थिक शक्ति बनाने की नीति रही, जो अब गलत साबित हो रही है. इसके परिणामस्वरूप अमेरिका में छोटे डेयरी फार्म बंद होने के कारण अब महज 35 हजार बडे डेयरी फार्म ही बचे हैं. जबकि भारत के गांवों में, चाहे छोटा किसान हो या बड़ा किसान हो, हर कोई पशुपालन से आम तौर पर जुड़ा होता है. इसीलिए भारत में डेयरी का सहकारी मॉडल सफल है। इसके बलबूते ही भारत दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश है. ऐसे में भारत द्वारा अपने करोडों पशुपालकों को नजरअंदाज करके अमेरिका के नॉनवेज डेयरी उत्पादों को अपने बाजार में बेचने की अनुमति देना आत्मघाती कदम साबित होगा.
भारत और अमेरिका के बीच व्यापार समझौते की राह में इन दो बाधाओं को टकराव का मुद्दा बनाना, दुनिया की नजरों में ट्रंप की नासमझी को ही साबित करता है. इस मामले में रोचक बात यह भी है कि ये बाधाएं अचानक से प्रकट नहीं हुई हैं. भारत में अनादि काल से गाय और दूध आस्था के केंद्र रहे हैं और अनंत काल तक इनके प्रति यह आस्था बरकरार रहेगी. इस भावना का सम्मान करते हुए ही दशकों से भारत के साथ अमेरिका अपने व्यापारिक रिश्तों को समय की कसौटी पर पूरी कामयाबी के साथ खरा उतार रहा है. अब अचानक से ट्रंप के टैरिफ का फितूर ही इस राह का रोड़ा बन रहा है. कम से कम अमेरिकी नागरिकों की भलाई के लिए ही सही, ट्रंप को अपने दिमाग से इस फ़ितूर को निकालना होगा. क्योंकि दुनिया का हर सामान्य प्रज्ञावान नागरिक यह जानता है कि टैरिफ की मार जनता की पॉकेट पर ही पडती है.
ट्रंप, भारत सहित अन्य देशों पर जो टैरिफ थोप रहे हैं, उसका भुगतान इन देशों की सरकारों को नहीं करना है. यह भुगतान टैरिफ से जुड़ी वस्तु का आयात या निर्यात करने वाली कंपनियों को करना होगा. हर कंपनी किसी भी प्रकार के टैरिफ में होने वाले इजाफे को अपने उपभोक्ताओं से ही वसूलती है. इसलिए अधिक टैरिफ चुका कर अमेरिका पहुंचने वाली वस्तुओं या सेवाओं की कीमत भी बढ़ेगी और इसका भुगतान, आखिरकार अमेरिकी उपभोक्ताओं को ही करना पडे़गा.
Published: 17 Aug, 2025 | 12:48 PM

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