लद्दाख में याक पालन बर्बादी की कगार पर, तेजी से घट रही है इन पशुओं की आबादी, जानें वजह
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 2012 में जहां लद्दाख में करीब 34,000 याक थे, वहीं 2019 तक यह संख्या घटकर 20,000 से भी कम हो गई.
भारत के सबसे दुर्गम और सुंदर क्षेत्रों में से एक लद्दाख, जहां कभी याक पालन न केवल जीवन का जरिया था बल्कि संस्कृति और परंपरा का भी अहम हिस्सा. लेकिन अब यही जीवनशैली संकट में है. जलवायु परिवर्तन के चलते वहां के मौसम में भारी बदलाव आ रहा है, जिससे याकों के जीवन और चरवाहों की परंपरागत आजीविका पर बड़ा असर पड़ रहा है.
क्या है याक पालन की परंपरा?
अल जजीरा की खबर के अनुसार, पहाड़ियों और ऊंचे बर्फीले मैदानों में याक पालन सदियों से होता आया है. यह पशु न केवल दूध, मांस और ऊन देता है, बल्कि ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर सामान ढोने में भी काम आता है. यहां की महिलाएं याकों की देखभाल, दुहाई और उनसे मिलने वाली ऊन से कंबल बनाना जैसे सारे काम संभालती हैं.
73 वर्षीय कुनजियास डोलमा जैसी महिलाएं आज भी तड़के 5 बजे उठकर याकों का दूध निकालती हैं, उनसे मक्खन बनाती हैं और पारंपरिक याक चाय तैयार करती हैं. उनके जीवन का हर हिस्सा याकों से जुड़ा है.
लेकिन अब क्या बदल रहा है?
जलवायु परिवर्तन लद्दाख के इस नाजुक इकोसिस्टम को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है. पहले जहां समय पर बर्फबारी और बारिश होती थी, अब वह अनियमित हो गई है. घास के मैदान सूख रहे हैं और याकों को भरपेट चारा नहीं मिल पा रहा.
32 वर्षीय त्सेरिंग डोलमा बताती हैं, “पहले सर्दियों में बर्फ खूब गिरती थी, पर अब सर्दी उतनी ठंडी नहीं रही. बारिश भी बहुत कम हो गई है. ऐसे में याकों के लिए चारा जुटाना मुश्किल हो गया है.”
स्टैंजिन राबगैस, जो लद्दाख सरकार में पशुपालन अधिकारी हैं, बताते हैं कि क्षेत्र में गर्मी बढ़ने के कारण याकों में बैक्टीरियल बीमारियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है.
असर सिर्फ याकों पर नहीं, परंपरा पर भी
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 2012 में जहां लद्दाख में करीब 34,000 याक थे, वहीं 2019 तक यह संख्या घटकर 20,000 से भी कम हो गई. वैज्ञानिकों का मानना है कि तापमान में 3 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि और बारिश के पैटर्न में बदलाव ने इस स्थिति को जन्म दिया है.
नाजुक इकोसिस्टम पर भारी पड़ता संकट
याक पालन सिर्फ जीवनयापन का जरिया नहीं, बल्कि लद्दाख के पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने वाला एक अहम हिस्सा है. चरवाहे न सिर्फ चरागाहों का संरक्षण करते हैं, बल्कि आक्रामक झाड़ियों को बढ़ने से रोकते हैं और जैव विविधता को भी बनाए रखते हैं.
क्या याक उत्पाद बन सकते हैं कमाई का जरिया?
राबगैस का मानना है कि यदि याक से बनने वाले उत्पादों को सही ढंग से ब्रांड किया जाए, तो यह लद्दाख से बाहर भी बेचे जा सकते हैं. उदाहरण के लिए, याक के बच्चे की ऊन बहुत मुलायम होती है और गुणवत्ता में कश्मीरी ऊन को भी टक्कर देती है.
नई नौकरियों की तलाश में छूट रही परंपरा
आज के युवाओं के पास विकल्प ज्यादा हैं, जैसे टूरिज्म इंडस्ट्री, शिक्षा या आर्मी में काम. दूसरी ओर, युवा पीढ़ी अब पारंपरिक जीवन छोड़कर शहरों की ओर जा रही है. पढ़ाई-लिखाई और नई नौकरियों की चाह में लोग अब इस कठोर लेकिन समृद्ध संस्कृति को पीछे छोड़ रहे हैं.
अन्य जानवर भी खतरे में
लद्दाख के ऊंचे पहाड़ों पर सिर्फ याक नहीं, बल्कि हिम तेंदुआ, लाल लोमड़ी और नीली भेड़ जैसे दुर्लभ जीव भी रहते हैं. यदि याक चरवाहों की संस्कृति समाप्त होती है, तो इन सभी का भविष्य भी खतरे में पड़ सकता है.
अब जरूरी है कि सरकार, स्थानीय समुदाय और पर्यावरणविद मिलकर याक पालन को प्रोत्साहित करें, आधुनिक तकनीक, बाज़ार सुविधा और युवाओं के लिए प्रशिक्षण जैसे उपाय अपनाकर. तभी लद्दाख की यह अनमोल परंपरा और उसका इकोसिस्टम सुरक्षित रह पाएगा.