असम में महिलाएं कर रहीं ‘क्रैब-कम-धान’ की खेती, आखिर खेतों में क्यों छोड़ रही हैं केकड़े?
असम के लखीमपुर जिले की महिलाएं ‘क्रैब-कम-धान’ खेती से नई मिसाल पेश कर रही हैं. पारंपरिक बेतगुटी धान की खेती और केकड़ों की मदद से न सिर्फ मिट्टी की गुणवत्ता सुधर रही है, बल्कि यह खेती जलवायु परिवर्तन के खतरों से भी सुरक्षा देती है.
Natural Farming: अरुणाचल प्रदेश की अपातानी जनजातियों ने जीरो वैली में पारंपरिक धान और मछली की मिश्रित खेती से सफलता की कहानी लिखी है. अब असम के बाढ़ प्रभावित लखीमपुर जिले की महिलाएं ‘क्रैब-कम-धान’ खेती के साथ नई मिसाल पेश कर रही हैं. यह नई जैविक खेती पद्धति थाईलैंड और कंबोडिया जैसे दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में पहले से लोकप्रिय है. लखीमपुर की ये महिलाएं, जिन्हें स्थानीय रूप से ‘कृषि सखी’ कहा जाता है, अपने धान के खेतों में स्थानीय केकड़ों को छोड़ रही हैं. इससे मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार आ रहा है. साथ ही केकड़े फसल के लिए खाद का काम भी कर रहे हैं.
डेक्कन हेराल्ड की रिपोर्ट के मुताबिक, प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने वाले प्रशिक्षित किसान समीर बोरदोलोई ने कहा कि हमारे यहां नदियों और wetlands में केकड़े आसानी से मिलते हैं, लेकिन किसानों को यह जानकारी नहीं थी कि ये केकड़े हमारी फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों के दुश्मन होते हैं. साथ ही ये खेतों में नमी बनाए रखने में भी मदद करते हैं. इसलिए हमने धान के खेतों में इन्हें छोड़ने का फैसला किया. बीतें मंगलवार को जिले के रोंगली चाराली गांव में करीब 90 महिला किसानों ने अपने खेतों में ‘बेतगुटी’ नामक स्थानीय धान की किस्म की रोपाई की. यह किस्म सामान्य फसली चक्र की तुलना में करीब एक महीने बाद बोई जाती है.
किसान ऐसे कर रहे खेती
प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने वाले समीर बोरदोलोई ने कहा कि यह देरी से की जाने वाली खेती किसानों को ज्यादा बारिश, बाढ़ या सूखे जैसी स्थितियों से बचने में मदद कर सकती है, जो आमतौर पर जून महीने में जलवायु परिवर्तन के कारण असम में देखने को मिलती है. मई-जून में सूखा या बाढ़ से धान की नर्सरी तबाह होना किसानों के लिए एक बड़ी समस्या बन चुकी है. कई बार कृषि विभाग को जुलाई में दोबारा धान के पौधे बांटने पड़ते हैं. बोरदोलोई ने कहा कि दो साल पहले सूखा जैसी स्थिति के कारण कई किसानों ने धान की खेती ही छोड़ दी थी.
जलवायु अनुकूल है बेतगुटी धान
बेतगुटी धान जलवायु अनुकूल है और इसे हमारे पूर्वज पारंपरिक रूप से उगाते थे. लेकिन अब यह किस्म धीरे-धीरे कम होती जा रही है क्योंकि किसान हाइब्रिड किस्मों की ओर बढ़ रहे हैं और पारंपरिक बीजों का संरक्षण नहीं हो रहा. किसान कुशेश्वर कोचरी ने इस प्रोजेक्ट के लिए 10 किलो बेतगुटी धान के बीज दिए थे, जिसे खेत में अंकुरित कर बोया गया. यह प्रोजेक्ट असम स्टेट रूरल लाइवलीहुड मिशन (ASRLM) के तहत चल रहा है, जो महिला किसानों को संगठित कर ‘कृषि सखी’ के रूप में ट्रेनिंग देकर जैविक खेती के लिए प्रेरित कर रहा है.
1.15 लाख महिला किसान कर रहीं जैवकि खेती
ASRLM ने 2020 से अब तक असम के 219 ब्लॉक्स में लगभग 1.15 लाख महिला किसानों को जैविक खेती से जोड़ा है. प्रोजेक्ट मैनेजर अनिर्बान रॉय ने कहा कि हमने जोहा चावल और अन्य बागवानी फसलों से शुरुआत की थी. पहली बार हमने जलवायु-अनुकूल बेतगुटी धान को इसमें शामिल किया है. हमारा लक्ष्य है कि जैविक खेती के लिए ज्यादा जमीन जोड़ी जाए, जिससे किसानों को सर्टिफिकेशन और बेहतर बाजार मिल सके.