मालेगांव चीनी मिल चुनाव में अजित पवार की तूफानी जीत, 21 में से 20 सीटों पर कब्जा

बारामती वह जमीन है जहां पवार परिवार की सियासत की जड़ें गहराई तक फैली हैं. यहां की चीनी मिलें, सहकारी बैंकों और ग्रामीण संस्थाओं का केंद्र होती हैं. इन पर पकड़ का मतलब है वोट बैंक, पैसा और राजनीतिक ढांचा. ऐसे में अजित पवार की जीत से साफ है कि उन्होंने न सिर्फ अपना असर कायम रखा है.

नई दिल्ली | Published: 26 Jun, 2025 | 12:54 PM

महाराष्ट्र की राजनीति में एक बार फिर चाचा-भतीजे की जंग सुर्खियों में है. डिप्टी सीएम अजित पवार ने बारामती की मालेगांव को-ऑपरेटिव शुगर फैक्ट्री के चुनाव में अपनी पकड़ साबित करते हुए 21 में से 20 सीटें जीत ली हैं. उनकी ‘श्री नीलकंठेश्वर पैनल’ ने जहां एकतरफा जीत दर्ज की, वहीं एनसीपी (शरद पवार गुट) समर्थित बलिराजा सहकार बचाव पैनल का खाता तक नहीं खुला. यह सिर्फ एक चुनावी जीत नहीं, बल्कि राजनीतिक ताकत का जोरदार प्रदर्शन भी है.

चुनाव बना प्रतिष्ठा की लड़ाई

यह चुनाव सिर्फ सहकारी संस्था का नहीं, बल्कि पवार परिवार की सियासी पकड़ का इम्तिहान भी था. अजित पवार ने चुनाव से पहले ही ऐलान कर दिया था कि वे खुद मिल के अध्यक्ष बनेंगे. उनकी भारी जीत ने उन्हें अब बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स का नेतृत्व सौंपने का रास्ता भी साफ कर दिया है.

चुनाव 22 जून को बैलेट पेपर से हुआ था और मतगणना मंगलवार सुबह 9 बजे से शुरू होकर बुधवार देर रात तक करीब 36 घंटे चली. जैसे-जैसे परिणाम सामने आते गए, अजित पवार के समर्थकों में जश्न का माहौल गहराता गया.

चीनी मिल चुनाव क्यों था अहम?

बारामती वह जमीन है जहां पवार परिवार की सियासत की जड़ें गहराई तक फैली हैं. यहां की चीनी मिलें, सहकारी बैंकों और ग्रामीण संस्थाओं का केंद्र होती हैं. इन पर पकड़ का मतलब है वोट बैंक, पैसा और राजनीतिक ढांचा. ऐसे में अजित पवार की जीत से साफ है कि उन्होंने न सिर्फ अपना असर कायम रखा है, बल्कि चाचा के गढ़ में भी अपनी मौजूदगी मजबूत कर ली है.

भविष्य की सियासत के लिए संकेत

अजित पवार की यह जीत स्थानीय निकाय चुनावों और 2029 के विधानसभा चुनावों से पहले बहुत अहम मानी जा रही है. यह चुनाव उनके लिए जनता की स्वीकृति और सहकारी राजनीति में वर्चस्व की मुहर है. इससे उन्हें महायुति गठबंधन में भी बड़ी भूमिका और सीटों पर दावा करने का आधार मिलेगा.

शरद पवार के लिए राजनीतिक संदेश

इस चुनाव में एनसीपी (एसपी) गुट की हार सिर्फ एक चुनावी परिणाम नहीं, बल्कि उस सत्ता संतुलन को दर्शाता है जो अब बारामती की धरती पर बदल रहा है. दशकों से महाराष्ट्र की सहकारी राजनीति में दबदबा रखने वाले शरद पवार के लिए यह नतीजा साफ तौर पर बड़ा झटका है.

टाइम्स ऑफ इंडिया से बात करते हुए अजित पवार खेमे के नेता और एनसीपी सदस्य किरण गुजर ने कहा, “यह परिणाम हमारे लिए चौंकाने वाला नहीं था. चुनाव में कोई सीधी टक्कर नहीं थी, और नतीजों ने एक बार फिर अजित पवार की लोकप्रियता को साबित किया है.”

शरद पवार के परपोते युगेंद्र पवार ने माना कि हार की उम्मीद थी. उन्होंने बताया कि शुरुआत में अजित पवार के पैनल से 3-4 सीटें मांगी गई थीं, लेकिन नाम वापसी के आखिरी दिन उनके पैनल ने 21 सीटों पर एकतरफा नामांकन कर दिया. मजबूरी में उन्होंने अपना अलग पैनल उतारा ताकि कार्यकर्ताओं का मनोबल बना रहे.

अजित पवार की राजनीतिक विरासत पर दावा

इस जीत के साथ अजित पवार खुद को केवल परिवार के वारिस नहीं, बल्कि जनता की स्वीकृति प्राप्त नेता के रूप में पेश कर रहे हैं. यह चुनाव उन्हें इस बात का मौका देता है कि वे सिर्फ शरद पवार के भतीजे नहीं, बल्कि सहकारी राजनीति के असली वारिस हैं.

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