अमेरिकी टैरिफ भी नहीं रोक सका रास्ता, चावल निर्यात में भारत की बादशाहत कायम.. कोई नहीं है टक्कर में

भारत ने वित्तीय वर्ष 2024- 25 में 201 लाख टन चावल का निर्यात किया. ऐसे भी भारत का राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) दुनिया का सबसे बड़ा खाद्य सब्सिडी प्रोग्राम  है, जो लगभग 800 मिलियन लोगों को अनाज देता है.

नोएडा | Published: 30 Nov, 2025 | 10:47 AM

Rice exports: अमेरिकी टैरिफ भी भारत का रास्ता नहीं रोक पा रहा है. क्योंकि भारत का चावल निर्यात कारोबार नए बदलाव के दौर में प्रवेश कर रहा है. सरकार घरेलू उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए खाद्य सुरक्षा उपायों को मजबूत कर रही है. हालिया रिपोर्ट के मुताबिक, भारत ने वित्तीय वर्ष 2024- 25 में 20.1 मिलियन टन चावल का निर्यात किया, जिसकी कीमत 12.95 बिलियन डॉलर रही और इस तरह वह दुनिया का सबसे बड़ा चावल आपूर्तिकर्ता बना रहा.

बिजनेसलाइन की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत की नीतियां और फैसले वैश्विक चावल बाजार को काफी प्रभावित कर सकते हैं. हालांकि, निर्यात पर रोक, बदलते नियम और कीमतों का नियंत्रण ऐसे कारक बन गए हैं जो व्यापार के तरीके को बदल रहे हैं. अब चावल निर्यातकों को अधिक नियंत्रित, निगरानी वाले और मांग के हिसाब से बदलने वाले बाजार का सामना करना पड़ रहा है. जबकि, सरकार की सबसे बड़ी चिंता खाद्य सुरक्षा है. इसके पीछे कई कारण हैं, जैसे अनिश्चित मौसम, फसल उत्पादन में बदलाव, घरेलू खपत का बढ़ना और महंगाई. अनियमित मॉनसून, लू और फसल की स्थिति ने स्टॉक को सावधानी से संभालना जरूरी बना दिया है.

चावल के निर्यात को लेकर कई कड़े नियम

इसके अलावा, भारत का राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) दुनिया का सबसे बड़ा खाद्य सब्सिडी प्रोग्राम  है, जो लगभग 800 मिलियन लोगों को अनाज देता है. इसलिए, जब उस साल की फसल मौसम की वजह से प्रभावित होती है, तो घरेलू जरूरत के लिए पर्याप्त स्टॉक बनाए रखना न केवल जरूरी बल्कि चुनौतीपूर्ण भी हो जाता है. इसलिए सरकार ने कई कदम उठाए हैं. जैसे गैर-बासमती चावल पर निर्यात प्रतिबंध, न्यूनतम निर्यात मूल्य (MEP) तय करना और कस्टम चेक को कड़ा करना, ताकि स्थानीय बाजार में चावल की आपूर्ति सुनिश्चित हो सके.

निर्यातकों के लिए अनिश्चितता बढ़ गई है

खाद्य सुरक्षा नियमों के कड़े होने से निर्यातकों के लिए अनिश्चितता बढ़ गई है. अब उन्हें लगातार नए नियमों के अनुसार ढलना पड़ता है. मुक्त, प्रतिबंधित और निषिद्ध  श्रेणियों में बार-बार बदलाव शिपमेंट योजना और कॉन्ट्रैक्ट समयसीमा को प्रभावित करता है. निर्यातकों को कामकाजी पूंजी संभालने में भी मुश्किल होती है, क्योंकि नियमों के पालन की जांच में होने वाली देरी से स्टॉक रखने की लागत बढ़ जाती है. न्यूनतम निर्यात मूल्य (MEP) के कारण उन्हें वैश्विक कीमतों के हिसाब से प्रतिस्पर्धा करना कठिन होता है, जिससे लाभ मार्जिन कम हो सकता है. साथ ही, निर्यात अनुमोदन अब बहुत सख्त हो गया है और सही दस्तावेज और अचानक बदलावों के साथ नियमों का पालन करना जरूरी है. यह स्थिति छोटे और मध्यम निर्यातकों के लिए सबसे कठिन है, क्योंकि उनके पास लंबी देरी और बदलते बाजार के दबाव को संभालने के लिए पर्याप्त वित्तीय क्षमता नहीं होती.

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