हरित क्रांति ने भारत को खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बना दिया और आज मध्यप्रदेश देश की खाद्य सुरक्षा में एक अहम भूमिका निभा रहा है. अनाज के साथ-साथ दलहन उत्पादन में भी प्रदेश देश के शीर्ष तीन राज्यों में शामिल है. आधुनिक सिंचाई तकनीक, सुलभ बिजली और आसान ऋण सुविधा ने किसानों को नकदी फसलों की ओर आकर्षित किया है, जिससे उनकी आमदनी भी बढ़ रही है लेकिन खेती के इस बदलते स्वरूप के साथ कुछ नई चुनौतियां भी सामने आ रही हैं, जिन पर अब विशेषज्ञ और सरकार दोनों ही ध्यान दे रहे हैं. खासकर ग्रीष्मकालीन मूंग की खेती में जिस तरह रसायनों का प्रयोग किया जा रहा है, वह सेहत और पर्यावरण दोनों के लिए खतरा बन गया है.
ग्रीष्मकालीन मूंग की खेती में तेजी
जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय जबलपुर के पूर्व कुलपति प्रो. विजय सिंह तोमर के अनुसार पिछले कुछ सालों में किसानों ने बड़े पैमाने पर ग्रीष्मकालीन मूंग की खेती शुरू की है, जो पहले खरीफ सीजन में बारिश पर निर्भर थी. मूंग की खेती मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने में मदद करती है, लेकिन गर्मियों में इसकी खेती से भूजल स्तर पर दबाव बढ़ रहा है. इसके साथ ही जल्दी बुआई के लिए फसल अवशेष जलाने की प्रवृत्ति और अधिक सिंचाई की जरूरत ने बिजली की खपत भी बढ़ा दी है. राज्य सरकार ने नरवाई जलाने पर रोक लगा दिया है और इसके विकल्प के लिए किसानों को प्रशिक्षित करने की योजना भी बनाई है.
खरपतवारनाशकों से होने वाला नुकसान
गर्मी की मूंग को जल्दी पकाने के लिए किसान पैराक्वाट और ग्लाइफोसेट जैसे खरपतवारनाशकों का इस्तेमाल कर रहे हैं. इससे फसल तो जल्दी पक जाती है, लेकिन इसका बुरा असर वातावरण के साथ मूंग खाने वाले लोगों के स्वास्थ्य पर भी पड़ता है साथ ही यह दवाइयां मिट्टी के छोटे जीवों को नष्ट कर देते हैं, जिससे जमीन की प्राकृतिक उर्वरता कम हो जाती है. साथ ही ग्रीष्मकालीन मूंग में कम से कम 3-4 बार सिंचाई करना पड़ती है जिससे पानी का जल स्तर भी नीचे जाता है.
दवाओं का इस्तेमाल न करें किसान
डॉ. तोमर बताते हैं की किसानों को खेती के लिए अधिक टिकाऊ और पर्यावरण अनुकूल पद्धतियों को अपनाने की आवश्यकता के बारे में जागरूक किया जा रहा है. ग्रीष्मकालीन मूंग जो प्राकृतिक रूप से पकता है, उसमें कीटनाशक एवं खरपतवार नाशक का उपयोग नहीं किया जाए. साथ ही वह यह भी कहते हैं कि डॉ. स्वामीनाथन जीवित होते तो वे इस बात से सहमत होते कि हरित क्रांति ने देश को बहुत कुछ दिया.
आज खेती में रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों और अन्य पौध संरक्षण रसायनों के उपयोग की होड़ लगी हुई है. जिसे न केवल मिट्टी को नुकसान हो रहा है बल्कि और जल निकाय स्त्रोत ने प्रदूषण की संभावना बढ़ गई है. इसी प्रकार पौध संरक्षण रसायनों के अनियंत्रित उपयोग के परिणामस्वरूप हमारे द्वारा ग्रहण किये जाने वाले भोजन बीमारियों का खतरा बढ़ रहा है.