आज डॉक्टर्स डे है, एक ऐसा दिन जब हम उन फरिश्तों को याद करते हैं जो अपनी मेहनत और सेवा से हमारी जिंदगी बचाते हैं. लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि जब प्राचीन काल में डॉक्टर नहीं थे, दवाइयां नहीं थीं, तब घायल सैनिक या जंगलों में रहने वाले लोग अपने जख्म कैसे ठीक करते थे?
इस सवाल का जवाब है चींटियां.. जी हां, वही छोटी-छोटी चींटियां जो हमें अक्सर काट लेती हैं, उन्हीं का इस्तेमाल प्राचीन भारत, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में जख्म सिलने के लिए किया जाता था.
युद्ध में जब टांकों की जगह बनी चींटियों की टांकी
जब पुराने समय के सैनिक युद्ध में घायल होते थे और आसपास कोई वैद्य या औजार नहीं होता था, तब वे बड़ी और मजबूत जबड़े वाली चींटियों की मदद लेते थे. जैसे ही किसी के शरीर पर कट लग जाता, साथी सैनिक उस जख्म के दोनों सिरों को पास लाते और बड़ी चींटियों को वहां चिपका देते. चींटी अपने मजबूत जबड़ों से स्किन को कसकर पकड़ लेती. उसके बाद सैनिक चींटी का शरीर तोड़ देते और उसका सिर वहीं छोड़ देते ताकि वो जैसे टांके की तरह काम करे.
भारत में भी रही इसकी परंपरा
प्राचीन भारत में ‘बुनकर चींटी’ (Weaver Ant – Oecophylla smaragdina) का इस्तेमाल होता था. ये चींटियां अपने मजबूत जबड़ों और हल्के एंटीसेप्टिक लार के कारण जख्म को जल्दी भरने में मदद करती थीं.
अफ्रीका और अमेजन में भी अपनाई गई तकनीक
अफ्रीका में ‘ड्राइवर एंट्स’ (Dorylus) और अमेजन के जंगलों में ‘आर्मी एंट्स’ (Eciton) का इसी तरह इस्तेमाल होता था. आदिवासी लोग जंगलों में जहां दवा की पहुंच नहीं थी, वहां इन चींटियों को ही अपनी ‘प्राकृतिक सिलाई मशीन’ बना लेते थे.
वैज्ञानिकों ने भी माना असरदार
आधुनिक शोधों में भी यह साबित हुआ है कि चींटियों की यह ‘टांका तकनीक’ ना सिर्फ प्रभावी थी, बल्कि कई बार सुरक्षित भी थी, बशर्ते कि चींटी किसी बीमारी की वाहक न हो. इन चींटियों के लार में हल्के एंटीबैक्टीरियल गुण होते हैं, जो घाव को संक्रमण से बचाते हैं.
जब डॉक्टर नहीं थे, तब प्रकृति ही बनी सहारा
आज हमारे पास सर्जन, टांके, दवाएं और एंटीबायोटिक्स हैं, लेकिन हजारों साल पहले हमारे पूर्वजों ने प्राकृतिक साधनों से इलाज का रास्ता खोजा, वो भी इतने चतुराई से कि विज्ञान आज भी उन्हें सराहता है. तो अगली बार जब आपको कोई चींटी काटे, तो एक पल रुक कर सोचिए, कभी यही चींटी इंसानी जख्मों की मरहम थी.