किसान दिवस स्पेशल : सिस्टम के आईने में छुपा है अरावली ही नहीं, धरती के दर्द का अक्स 

अरावली के लिए धरती की सबसे पुरानी पर्वत श्रेणियों में शुमार होना ही मुसीबत का सबब बन गया है. भूतत्व वैज्ञानिक मानते हैं कि पहाड़ जितने पुराने होते जाते हैं, उनके पत्थर न केवल जमीन के ऊपर, बल्कि जमीन के नीचे भी उतने ही ज्यादा ठोस होते जाते हैं. यह मजबूत पत्थर ही प्रकृति में तबाही मचा रहे ’विकास’ नामक तत्व को लुभाता है.

नोएडा | Updated On: 23 Dec, 2025 | 07:51 PM

उत्तर भारत में रेगिस्तान को मैदानी इलाकों से अलग करने का काम अरावली की पहाड़ियां करती हैं. अरावली के पहाड़ धरती की सबसे पुरानी पर्वत मालाओं में शुमार हैं. इससे इनका पर्यावरणीय महत्व समय के साथ बढ़ना तार्किक रहा है. लेकिन इसके साथ ही बीते कुछ दशकों में विकास के नाम पर हो रहे विनाश के कारण अरावली पर्वत श्रृंखला खुद संकट की जद में आ गई है. कभी खनन के नाम पर, तो कभी वन्य जीव संपदा की खुली लूट के बहाने अरावली के दर्द का अक्स सिस्टम को आईना दिखाता रहता है. अब तक अरावली की संपदा को अवैध रूप से लूटने का मुद्दा चर्चाओं में रहता था, लेकिन इस बार बात, कानून के दायरे में हो रही है, इसलिए जमीनी हकीकत को तथ्यों के तराजू पर तौलना ही लाजमी है.

इस हकीकत को मानने से किसी को कोई गुरेज नहीं है कि अरावली के लिए धरती की सबसे पुरानी पर्वत श्रेणियों में शुमार होना ही मुसीबत का सबब बन गया है. भूतत्व वैज्ञानिक मानते हैं कि पहाड़ जितने पुराने होते जाते हैं, उनके पत्थर न केवल जमीन के ऊपर, बल्कि जमीन के नीचे भी उतने ही ज्यादा ठोस होते जाते हैं. यह मजबूत पत्थर ही प्रकृति में तबाही मचा रहे ’विकास’ नामक तत्व को लुभाता है. इसके अलावा बेशकीमती खनिज संपदा, लगातार पुराने पड़ते पहाड़ों की दूसरी सबसे प्रमुख पीड़ा बन गई है. इसकी तह में जाने पर हम इंसानों के द्वारा जाने अनजाने हुई कुछ गलतियां उभर कर सामने आती हैं. इन गलतियों में ही दोहन के दर्द से कराहती अरावली सहित पूरी धरती पर पनप रहे पर्यावरणीय असंतुलन की झलक दिखने लगती है.

उम्रदराज पहाड़ों की कोख में ही सबसे कीमती खनिजों के भंडार

यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि उम्रदराज पहाड़ों की कोख में ही सबसे कीमती खनिजों के भंडार पनपते हैं. आधुनिक विज्ञान ने जिस तेज गति से धरती ही नहीं, ब्रह्मांड की सीमाओं को लांघना शुरू किया, उससे कहीं ज्यादा तेज गति से हर प्रकार की प्राकृतिक संपदाओं को भी अपने उपयोग में लाने की कवायद तेज हुई है. सुरसा के मुंह की तरह उन्नत मानव की लगातार बढ़ रही जरूरतों के दायरे में धरती की संपूर्ण संचित संपदा को लेने की होड़, बीते कुछ दशकों में चरम पर पहुंच गई है. अब तक का अनुभव बताता है कि 20वीं सदी में विज्ञान के बलबूते प्राकृतिक संपदा का दोहन सबसे ज्यादा हुआ है.

वैज्ञानिक तकनीकों की खोज दुनिया भर के तमाम देशों की सरकारों के नियंत्रण में होती आई है. इस कारण आम तौर पर प्राकृतिक संसाधनों के दोहन का काम भी सरकार की प्रत्यक्ष देखरेख में ही किया जाता रहा है. मगर, दूसरे महायुद्ध के बाद सभी देशों के बीच विकसित बनने की होड़ मच गई. इससे धरती पर तथाकथित ’विकास’ की गति बेलगाम हो गई. नतीजतन विकास की इस गति को संतुष्ट करने के लिए विकसित बन रहे देशों की सरकारों ने प्राकृतिक संसाधनों के दोहन का काम मुट्ठी भर उद्योगपतियों को सौंपने की भूल कर दी. इस भूल का नतीजा 21वीं सदी में अरावली जैसी धरती की सबसे पुरानी और बेशकीमती धरोहरें अब अपने वजूद को खोने के संकट के रूप में भुगत रही हैं.

सरकारों को पता नहीं चला बिल गेट्स कब धरती के सबसे बड़े किसान बन गए

आलम यह है कि तकनीक पर भी कुछ इंसानों का इस प्रकार नियंत्रण हो गया है कि इनके आगे अब दुनिया की सबसे ताकतवर सरकारें भी पानी भरती नजर आती हैं. पूरी धरती को अपने कब्जे में लेने की कुछ इंसानों की उत्कंठा के उदाहरण इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि किस प्रकार से धरती के इको सिस्टम को संचालित करने वाली सरकारों ने भूलवश ही सही, लेकिन समूची कायनात को ही संकट में डाल दिया है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण कथित रूप से दुनिया के सबसे ताकतवर देश अमेरिका ने पेश किया है. इस घटनाक्रम को समझने के लिए धरती के धन्नासेठों का विकास क्रम समझिए. विश्व व्यवस्था को सॉफ्टवेयर से चलाने का चस्का लगाने वाली कंपनी माइक्रोसॉफ्ट के मालिक बिल गेट्स अपने इस धंधे के बलबूते विश्व के सबसे धनी इंसान बने. इस दौरान अमेरिकी सरकार को ही पता नहीं चला कि बिल गेट्स कब इस धरती के सबसे बड़े किसान बन गए.

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि बिल गेट्स आज अमेरिका की तीन चौथाई से ज्यादा कृषि योग्य जमीन के मालिक हैं. हैरत की बात तो यह है कि अब वह सूरज की रोशनी को भी अपने नियंत्रण में लेकर धूप बेचने के कारोबारी प्रोजेक्ट को आगे बढ़ा चुके हैं. इस बीच अमेरिका के लोगों को ही यह पड़ताल करनी पड़ेगी कि क्या बिल गेट्स की जमींदारी, अमेरिका में खेती छोड़ चुके छोटे किसानों की मिल्कियत पर तो नहीं टिकी है. यह बात दीगर है कि ’किसान दिवस’ मना रहे भारत के लिए यह तथ्य किसी बानगी से कम नहीं है. हो भी क्यों न, भारत में लघु एवं सीमांत किसान, देश की किसानों की कुल आबादी में तीन चौथाई से ज्यादा हिस्सेदारी रखते हैं. इसके बरक्स, अमेरिका और यूरोप की तर्ज पर भारत में भी लघु एवं सीमांत किसानों को शहरी मजदूर बनाकर कॉर्पोरेट फार्मिंग का मार्ग प्रशस्त किया जा रहा है. नतीजतन, भारत में भी अडानी सहित कुछ लोग अब अन्नदाता के रूप में स्थापित होने की ओर अग्रसर हैं.

दैवीय हसरतों को पूरा करने में जुट गया इंसान

अरावली के दर्द को एक और नजरिए से समझने के लिए एक बार फिर अमेरिका का ही रुख करते हैं. सरकार और सत्ता को बौना साबित करने वाले इंसान का दूसरा उदाहरण एलन मस्क हैं. इस बात के सबूत पेश करने की जरूरत नहीं है कि एलन मस्क की कंपनी स्पेस एक्स ने कालांतर में किस प्रकार से अमेरिका के अंतरिक्ष कार्यक्रम को संचालित करने वाली दुनिया की सबसे बड़ी अंतरिक्ष एजेंसी नासा को अपाहिज बना दिया. इस क्रम में मस्क ने पहले डोनाल्ड ट्रंप को दुनिया के सबसे ताकतवर पद पर आसीन कराने में अपनी भूमिका का अहसास कराया. इसके बाद ट्रंप ने जब मस्क पर हावी होने की कोशिश की तो उन्होंने अमेरिकी सरकार को ही उसकी औकात बताकर अपनी राहें जुदा कर ली. अलबत्ता मस्क अब पूरी धरती पर इंटरनेट सेवाओं को अपने नियंत्रण में लेने सहित अन्य दैवीय हसरतों को पूरा करने में जुट गए हैं. धरती पर विकास से लेकर विनाश तक का सफर तय करने वाली मानव जाति का जब कभी भी इतिहास लिखा जाएगा, तब वैश्विक व्यवस्था को चंद लोगों के हाथों में देने की इस भूल का जिक्र जरूर होगा. यह भूल अमेरिका से लेकर भारत तक, तरक्की की राह पर गामजन लगभग सभी ताकतवर देश कर बैठे हैं.

धरती पर सभी प्रकार की संपदा के स्वामित्व को लेकर अक्सर प्रकाशित होने वाली रिपोर्ट भी बताती हैं कि दुनिया की तीन चौथाई से ज्यादा संपदा के मालिक वे लोग हैं जिनकी आबादी में हिस्सेदारी 5 फीसदी से भी कम है. मतलब साफ है कि वैश्विक व्यवस्था को नियंत्रित करने वाली शक्ति, जो अब तक सरकारों के हाथों में थी, अब वह मुट्ठी भर उद्योगपतियों के हाथों में पहुंच चुकी है. कम से कम लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देशों में इस सच को स्वीकारने का वक्त आ चुका है कि इन देशों की सरकार अब जम्हूरियत के नाम पर जमूरा बन गई हैं. अब बच गए चीन और रूस जैसे गिने चुने अलोकतांत्रिक देश, जो अरावली जैसे पर्वतों की पीर से अछूते नहीं हैं. दुनिया भर की सरकारें, इन सरकारों को परोक्ष रूप से चला रहे धनपशु और जम्हूरियतों के सबसे बड़े जमूरे यानी हम सब अवाम, यह जानते हैं कि पृथ्वी, ब्रह्मांड का एकमात्र ग्रह है, जिस पर जीवन को संभव बनाने वाला पर्यावरण मौजूद है.

अगर एक पेड़ मां के नाम पर रोपने से धरती बच सकती है तो..

यह बात भी सर्वमान्य रूप से स्वीकार की जा चुकी है कि अब पर्यावरण संकट में है. नदी, जंगल, पहाड़ और जीव जंतुओं का पर्यावास अपने मूल स्वरूप को खो चुका है. हम यह कह सकते हैं कि 20वीं सदी तक प्राकृतिक संपदा की लूट इंसान की जरूरतों के लिए हुई, मगर क्या अब यह कहने में कोई गुरेज होगा कि 21वीं सदी में प्राकृतिक संपदा का सफाया मुट्ठी भर लोगों की कभी न मिटने वाली भूख के नाम पर हो रहा है. आखिर में यही सवाल जेहन में आता है कि जो किसान सहस्त्राब्दियों तक संतुलित तरीके से धरती की सेवा करते हुए अन्नदाता बना रहा, अब 21वीं सदी के नए अन्नदाता, क्या अपने दायित्व की गंभीरता को समझने की योग्यता हासिल कर पाएंगे. भारत को 2047 तक जगदगुरू बनाने का संकल्प लेने वालों को भी इस विरोधाभासी सोच पर चिंतन करना पड़ेगा कि अगर एक पेड़ मां के नाम पर रोपने से धरती बच सकती है तो फिर नदी, जंगल और पहाड़, चंद उद्योगपतियों के नाम करने का प्रहसन क्यों?

Published: 23 Dec, 2025 | 07:46 PM

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