भारत और अमेरिका के बीच व्यापार समझौते की बातचीत जोरों पर है. ऐसे में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप 9 जुलाई तक एक “बहुत बड़ा समझौता” चाहते हैं, और वहीं भारतीय प्रतिनिधिमंडल वॉशिंगटन में डेरा डाले बैठा है. विदेश मंत्री एस. जयशंकर भी वहां पहुंचे हैं. इस सब के बीच एक मुद्दा ऐसा है जिस पर भारत पूरी मजबूती से अड़ा हुआ है-कृषि और डेयरी क्षेत्र में कोई समझौता नहीं…
इसका कारण भी साफ है कि भारत में खेती सिर्फ एक व्यवसाय नहीं, बल्कि करीब 40 फीसदी आबादी की आजीविका का आधार है. ऐसे में यदि अमेरिका की बात मानी जाती है और उनकी सब्सिडी वाली कृषि और डेयरी वस्तुएं भारत में आने लगेंगी, तो यह देश के करोड़ों किसानों को तबाह कर सकती है.
खेती में जमीन-आसमान का फर्क
भारत और अमेरिका के बीच खेती को लेकर फर्क सिर्फ तकनीक या पैदावार का नहीं है, बल्कि इसकी जड़ें नीतियों, सरकारी सब्सिडी और सामाजिक संरचना तक फैली हुईं है. अमेरिका में एक किसान को औसतन हर साल करीब 61,000 डॉलर (करीब 50 लाख रुपये) की सरकारी मदद मिलती है, जबकि भारत में यह राशि सिर्फ 23,000 रुपये का आस पास होती है. ऐसे में अमेरिका का किसान न सिर्फ ज्यादा संसाधनों से लैस होता है, बल्कि उसे सरकार से आर्थिक सुरक्षा भी मिलती है.
दूसरी ओर, भारत का किसान अक्सर बारिश, कर्ज, बाजार भाव और खराब नीतियों के बीच जूझता रहता है. अगर ऐसे असमान हालात में दोनों देशों के किसानों को एक जैसे खुले बाजार में मुकाबला करना पड़े, तो भारतीय किसान की हार लगभग तय मानी जाएगी. इसलिए, यह तुलना सिर्फ आर्थिक नहीं, बल्कि टिकाऊ भविष्य की भी है.
GMO और दूध धर्म को कर सकता है आहत
इंडिया टूडे की रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका चाहता है कि भारत जीन-संशोधित (GMO) सोयाबीन और मक्का, साथ ही ऐसे डेयरी उत्पादों का आयात शुरू करे जो उन गायों से आते हैं जिन्हें मांस-मिलाया चारा खिलाया गया है. यह सिर्फ एक आर्थिक मुद्दा नहीं है, बल्कि धार्मिक, सांस्कृतिक और जैविक सुरक्षा का भी सवाल है. जैसा कि कृषि विशेषज्ञ ओम प्रकाश कहते हैं, “भारत में कॉटन को छोड़कर कोई भी GMO फसल की अनुमति नहीं है, तो फिर अमेरिका से GMO मक्का और सोयाबीन मंगाने का सवाल ही नहीं उठता.”
आंकड़ो से समझें भारत में खेती
भारत में खेती करीब 19 करोड़ लोगों की आजीविका का आधार है, जो देश की कुल आबादी का बड़ा हिस्सा है. इसके उलट, अमेरिका में केवल 20 लाख लोग खेती से जुड़े हैं, जो कुल रोजगार का सिर्फ 1 प्रतिशत हैं. वहां खेती एक कॉरपोरेट बिजनेस मॉडल बन चुकी है, जबकि भारत में यह संस्कारों, परिवारों और परंपराओं से जुड़ी जीवनशैली है.
जोत के आकार की बात करें तो भारत में एक किसान के पास औसतन 1.08 हेक्टेयर जमीन होती है, जो छोटी, बंटवारे वाली और सीमित संसाधनों वाली होती है. वहीं अमेरिका में एक किसान के पास औसतन 180 हेक्टेयर जमीन होती है, जो आधुनिक मशीनों, सिंचाई और तकनीक से लैस होती है.
भारत अपने किसानों को बाहरी प्रतिस्पर्धा से बचाने के लिए कृषि उत्पादों पर औसतन 39 फीसदी तक आयात शुल्क (टैरिफ) लगाता है, ताकि सस्ते विदेशी माल से घरेलू बाजार न डूबे. दूसरी ओर, अमेरिका अपने किसानों को सीधे नकद सब्सिडी देता है और आयात शुल्क केवल 5 फीसदी के आसपास रखता है.
यानी, अमेरिका अपने किसानों को पैसे से ताकतवर बनाता है, जबकि भारत उन्हें नीतियों और शुल्क के जरिए सुरक्षा देता है. पर दोनों का मकसद एक ही है कि अपने किसानों को संभालना, फर्क बस पहुंच और नीति के औजारों का है.
अगर भारत झुका तो क्या होगा?
अगर भारत अमेरिकी दबाव में आकर कृषि और डेयरी उत्पादों पर टैरिफ कम कर देता है, तो अमेरिका के सस्ते और भारी सब्सिडी वाले अनाज भारत के बाजार में भर जाएंगे. इससे स्थानीय किसान बर्बाद हो सकते हैं और भारत में खाद्य कीमतों में अस्थिरता आ सकती है. इसके साथ ही खाद्य सुरक्षा और आस्था पर भी खतरा होगा.
नीति आयोग की विवादित सिफारिश और विवाद
मार्च 2025 में नीति आयोग ने एक चर्चा पत्र जारी किया था, जिसमें कहा गया था कि भारत की कृषि उत्पादकता अमेरिका से बहुत कम है और सुधार की जरूरत है. इसमें सुझाव दिया गया था कि भारत को कुछ GMO उत्पादों के आयात की अनुमति मिलनी चाहिए.
हालांकि बाद में यह पेपर वेबसाइट से हटा लिया गया, और कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने सरकार पर हमला करते हुए आरोप लगाया कि नीति आयोग अमेरिकी कॉरपोरेट्स और किसानों के पक्ष में खड़ा है, भारत के नहीं.
दूध का मामला- धार्मिक और स्वास्थ्य संकट
अमेरिका के डेयरी उत्पादों में अक्सर उन गायों का दूध होता है जो मांस मिला चारा खाती हैं. भारत ने ऐसे उत्पादों के आयात पर सख्त प्रतिबंध लगा रखा है. एक बार सोचिए कि अगर ऐसा मक्खन खाने को मिले जो ऐसी गाय के दूध से बना हो, जिसने मरे हुए जानवरों का मांस खाया हो. भारत में इस तरह के उत्पाद को कभी भी जनता द्वारा स्वीकारा नहीं जाएगा. दरअसल, दूध भारत में सिर्फ खाना नहीं, एक पूजा-पवित्रता का प्रतीक भी है.
इसलिए “लाल रेखा” जरूरी है
भारत सरकार और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने साफ कहा है कि कृषि और डेयरी भारत के लिए ‘रेड लाइन’ हैं, जिन पर समझौता नहीं होगा. यह सिर्फ एक व्यापारिक मुद्दा नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों की आजीविका का सवाल है, भारत की खाद्य सुरक्षा और आस्था का सवाल है और न्यायसंगत वैश्विक व्यापार की बात है.