कश्मीर की मशहूर केसर पर मौसम की मार, फूल खिले मगर उत्पादन बुरी तरह घटा
केसर की खेती पूरी तरह मौसम पर निर्भर करती है, खासकर सर्दियों की नमी पर. लेकिन पिछले दो-तीन सालों से कश्मीर में बर्फबारी बहुत कम हुई है. नतीजा यह हुआ कि केसर के कॉर्म (जड़ें) ठीक से बढ़ ही नहीं पाए.
कश्मीर की वादियों में जब नवंबर आता है, तो ठंडी हवा के साथ केसर की मीठी खुशबू भी पूरे माहौल में घुल जाती है. पंपोर के खेतों में फैले बैंगनी फूल देखने वाले का दिल मोह लेते हैं. लेकिन इस खूबसूरत नजारे के पीछे इस बार किसानों की गहरी चिंता छिपी है. फूल खिले हैं, पर फसल पहले जैसी नहीं. खेती से जुड़े हजारों परिवारों की उम्मीदें इस बार अधूरी सी रह गई हैं.
फूल दिखे, पैदावार घटी
बिजनेस लाइन की रिपोर्ट के अनुसार, लालेथपोरा गांव के किसान अली मोहम्मद रेशी हर सुबह अपने खेत में पहुंचते हैं और बेहद नाजुक केसर के फूलों को धीरे-धीरे तोड़ते हैं. इन छोटे-से फूलों में छिपा लाल रंग का रेशा ही केसर कहलाता है. लेकिन इस बार टोकरी आधी ही भर पाती है. रेशी दुख भरे लहजे में कहते हैं “इस बार फसल सिर्फ 25 फीसदी ही हुई है. पिछले साल भी हालत बहुत अच्छी नहीं थी, लेकिन अब तो उससे भी कम मिल रहा है.”
उनकी बात केवल एक किसान की नहीं, बल्कि पूरे पंपोर क्षेत्र के किसानों की कहानी है, जो इस बार की कमजोर पैदावार से बेहद परेशान हैं.
सूखे सर्द महीने बने सबसे बड़ा कारण
केसर की खेती पूरी तरह मौसम पर निर्भर करती है, खासकर सर्दियों की नमी पर. लेकिन पिछले दो-तीन सालों से कश्मीर में बर्फबारी बहुत कम हुई है. नतीजा यह हुआ कि केसर के कॉर्म (जड़ें) ठीक से बढ़ ही नहीं पाए.
एक अन्य किसान बिलाल अहमद बताते हैं “कॉर्म पतले रह गए… उनमें ताकत ही नहीं बनी. फूल खिले लेकिन बहुत कम.” इस बार कश्मीर के लगभग 3,200 हेक्टेयर खेतों में यही हाल देखने को मिला है.
कम होती जमीन, बढ़ती मुश्किलें
कभी कश्मीर में 5,700 हेक्टेयर में केसर उगाया जाता था. सरकार के आंकड़े कहते हैं कि 2025 तक यह घटकर सिर्फ 3,665 हेक्टेयर रह गया है. जमीन में यह गिरावट दो कारणों से हुई—बारिश और बर्फ की कमी, यानी मौसम का बदलता मिजाज, इतना ही नहीं केसर के खेतों का धीरे-धीरे दूसरी गतिविधियों के लिए उपयोग हो रहा है.
खेती विभाग के अधिकारी बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन का असर इतना बढ़ गया है कि अब सर्दियों में पॉर्क्यूपाइन जैसे जानवर भी ज्यादा सक्रिय रहते हैं, जो कॉर्म को खोदकर खराब कर देते हैं.
सरकारी योजनाएं… आधी अधूरी
केसर को बचाने के लिए 2007 में केसर एक्ट लाया गया, जिसमें केसर भूमि को बचाने का दावा था. 2010 में 412 करोड़ रुपये की नेशनल केसर मिशन शुरू हुई, जिसमें पूरे क्षेत्र में ड्रिप सिंचाई लगनी थी, ताकि सूखे का असर कम हो सके. लेकिन किसान बताते हैं कि यह योजना कागजों में तो शानदार थी, पर जमीन पर पूरी नहीं उतरी.
चट्लम गांव के किसानों का कहना है“पाइप बिछाए गए थे, लेकिन पानी कभी आया ही नहीं… सिस्टम आज तक चालू नहीं हुआ.”
कश्मीर का केसर
कश्मीर का केसर सिर्फ मसाला नहीं, बल्कि कश्मीरियों की विरासत है. दुनिया भर में इसकी खुशबू और गुणवत्ता की चर्चा होती है. पर लगातार कम होती पैदावार अब इस विरासत को कमजोर कर रही है.
अगर सिंचाई, मौसम प्रबंधन, जमीन संरक्षण और खेती की नई तकनीकों पर जल्द ध्यान नहीं दिया गया, तो आने वाले वर्षों में केसर उत्पादन और भी नीचे जा सकता है.
किसानों की एक ही मांग है “हमारी फसल को बचाने के लिए सरकार और वैज्ञानिकों को मिलकर काम करना होगा… नहीं तो यह अमूल्य खेती खत्म होती जाएगी.”