Bihar Election 2025: सोचिए, बिहार की राजनीति से अगर नीतीश कुमार को निकाल दिया जाए, तो बचता क्या है? लालू की सियासी लड़ाई, मोदी की हुंकार और कांग्रेस के साथ बाकी दलों की अस्मिता बचाने की जुगत. भले ही सब अपनी सत्ता बनाने का दावा ठोक रहे हैं. लेकिन इन सबके बीच, एक आदमी है जो सधे कदमों से चलता है कभी साथ तो कभी अलग, कभी महागठबंधन में, तो कभी एनडीए में और दोनों ही बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा रहता है. वो आदमी हैं, ‘नीतीश कुमार.’ वो जिसे कुछ लोग “सुशासन बाबू” कहते हैं और कुछ लोग “यू-टर्न मास्टर”. वो जो बिहार की सियासत का सबसे बड़ा सर्वाइवर है जिसने हर हार को अवसर बनाया और हर अवसर को सत्ता में बदल दिया.
बाढ़ के गांव से सत्ता के गलियारों तक
1 मार्च 1951, बिहार के नालंदा जिले का बख्तियारपुर गांव. एक साधारण परिवार में जन्मा लड़का, जिसकी आंखों में कुछ बड़ा करने का सपना था. पिता वैद्य थे, घर में ज्यादा कुछ नहीं था. लेकिन नीतीश में एक बेचैनी थी, जो सिर्फ पढ़ाई या नौकरी से शांत नहीं होने वाली थी. बचपन में ही वो रेलगाड़ियों को गुजरते देख सोचा करते, “कभी मैं भी इन पटरियों से निकल जाऊंगा, किसी बड़े शहर में, कुछ करने.” वो आगे चलकर सच में निकले, लेकिन गाड़ियों से नहीं, बल्कि जनता की नब्ज पकड़कर.

युवा छात्र नेता नीतीश कुमार (Photo Credit: X @Socialist Swaraj)
छात्र राजनीति: पिछड़ों की बैठक और पहली जीत
साल था 1969 का जब पटना विश्वविद्यालय की गलियों में आंदोलन की हवा थी. उसी दौरान एक नाम धीरे-धीरे उभर रहा था, नीतीश कुमार. उस समय छात्र राजनीति में ऊंची जातियों का दबदबा था. पिछड़ी जातियों के लड़के बस झंडे उठाते, मंच नहीं पाते थे. नीतीश ने इसे बदलने की ठानी. उन्होंने पिछड़े और दलित छात्रों के साथ गुप्त बैठकों का सिलसिला शुरू किया. उनकी रणनीति साफ थी, “पहले संगठन बनाओ, फिर चुनाव जीतकर दिखाओ.” परिणाम सामने था… छात्रसंघ चुनाव में नीतीश ने जीत दर्ज की. यह उनकी पहली राजनीतिक सफलता थी जहां उन्होंने दिखाया कि रणनीति, साहस और संगठन तीनों उनके हथियार हैं.
शुरुआती राजनीति: हार, ठेकेदारी और वापसी
अब वक्त था असली राजनीति में उतरने का. साल 1977, जनता पार्टी के टिकट पर हरनौत सीट से विधानसभा चुनाव लड़ा. पहली बार हार मिली जिसके बाद 1980 में फिर चुनाव लड़ा, फिर हार गए. कहते हैं, उस वक्त नीतीश ने ठान लिया था, “अब राजनीति नहीं, ठेकेदारी करेंगे.” सरकारी ठेके लेने का मन बना लिया था, लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था. जयप्रकाश आंदोलन से निकले नीतीश को याद दिलाया गया “तुम तो बदलाव के लिए लड़े थे, ठेका लेने के लिए नहीं” और वही बात उनके भीतर फिर चिंगारी बनकर उठी. 1985 में उन्होंने फिर से चुनाव लड़ा. इस बार जनता ने उन्हें चुना औप वह पहली बार विधायक बने.
उदय: लालू का दौर, नीतीश की तलाश
1989 में जब लालू प्रसाद यादव बिहार के सबसे बड़े नेता बनकर उभरे, नीतीश उनके साथ थे. दोनों जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के साथी, दोनों समाजवादी विचारधारा के वाहक और दोनों ही पिछड़े समाज के बेटे थे लेकिन जल्द ही दोनों के रास्ते अलग हो गए. लालू के भाषणों में “मजाक और नाटक” था, नीतीश की राजनीति में “गणित और रणनीति”. लालू जनभावनाओं से खेलते थे, नीतीश प्रशासन से काम लेते थे. यहीं से शुरू हुआ बिहार की राजनीति का सबसे बड़ा द्वंद्व… लालू बनाम नीतीश.

लालू यादव और नीतीश कुमार
लालू और नीतीश: दोस्ती, तकरार और सियासी जंग
दोनों के बीच रिश्ते में कभी अपनापन रहा, कभी आग. एक बार लालू ने जनसभा में मंच से कहा कि, “नीतीश बाबू साइकिल पर घूमते हैं, लेकिन दिल्ली पहुंचने के लिए इंजन चाहिए.” इसपर नीतीश ने जवाब देते हुए कहा कि, “इंजन मैं भी चला सकता हूं, फर्क सिर्फ इतना है कि मैं समय देखकर चढ़ता हूं.”
विधानसभा में लालू ने तंज किया, “नीतीश हमेशा यू-टर्न लेते हैं.” नीतीश बोले, “राजनीति में यू-टर्न बुरा नहीं होता, अगर वह जनता के हित में हो.” लालू बोले, “नीतीश सुशासन बाबू नहीं, अवसर बाबू हैं.” नीतीश ने जवाब दिया, “सत्ता किसी की जागीर नहीं, जनता का हक है.”
इन जुमलों ने बिहार की सियासत में रस भी घोला और ठसक के साथ मीठा सियासी जहर भी.

Bihar Assembly Election 2025
सत्ता का रास्ता: 2005 की सुबह
बात 2005 की है जब बिहार में लालू यादव के शासनकाल को जंगलराज के रूप आरोपित किया गया था. आरोप था कि उस वक्त अपराध, अपहरण, बिजली-पानी की कमी और भ्रष्टाचार बढ़ा. उस समय विपक्षी नेता कहते थे कि अखबार अपराधिक घटनाओं से भरे हुए हैं. तब जनता दल (यू) और बीजेपी साथ आए नीतीश कुमार ने “सुशासन” का नारा दिया. लोगों ने उनपर भरोसा किया जिसके बाद 24 नवंबर 2005 को बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे नीतीश कुमार. ये था नीतीश का असली उभार. जहां उन्होंने सड़कों को चमकाया, स्कूलों में छात्राओं को साइकिल दिलवाई और पंचायत में महिलाओं को 50% आरक्षण देकर इतिहास रचा.
सुशासन का दौर: जब बिहार बदला
नीतीश के शासन में बिहार ने विकास का स्वाद चखा, सड़कें बनीं, पुल बने, बिजली गांवों तक पहुंची. मुख्यमंत्री जनता दरबार जैसी पहल ने जनता को सीधे सरकार से जोड़ा. साइकिल योजना ने लाखों लड़कियों को स्कूल पहुंचाया. पंचायती राज में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी और शराबबंदी लागू कर उन्होंने एक नया संदेश दिया, “समाज सुधार भी विकास का हिस्सा है.” लोगों ने कहा, “नीतीश बाबू ने बिहार को चलना सिखाया.” लेकिन धीरे-धीरे, सफलता के साथ आलोचनाओं की छाया भी गहराने लगी.

बिहार में शराबबंदी का दौर
शराबबंदी का सच: नीयत नेक, असर कड़वा
शराबबंदी नीतीश का सबसे चर्चित निर्णय था. उन्होंने कहा, “बिहार की महिलाएं चाहती हैं, तो मैं करूंगा.” उन्होंने कर दिखाया लेकिन इसके परिणाम जटिल थे. राज्य को राजस्व का नुकसान हुआ, अवैध शराब कारोबार बढ़ा और पुलिस भ्रष्टाचार में घिर गई. फिर भी नीतीश ने अपने फैसले से पीछे नहीं हटे, कहा “शराब नहीं बिकेगी, भले कुछ भी हो जाए.” इस जिद को कुछ ने “नैतिक ताकत” कहा, कुछ ने “राजनीतिक हठ”.