श्रीअन्न फसलों में से एक कुटकी (Little Millet) की फसल अपने औषधीय गुणों और सूखे में भी अच्छी पैदावार देने की क्षमता के लिए जानी जाती है. इसकी खेती से किसानों को अच्छी पैदावार के साथ-साथ आमदनी भी होती है. लेकिन कुटकी की फसल से अच्छी पैदावार करने के लिए किसानों के लिए बेहद जरूरी है कि इसकी उन्नत और अच्छी क्वालिटी की किस्मों का चुनाव करें. कुटकी की कुछ उन्नत किस्में हैं जिन्हें खास तौर पर सूखे या बारिश आधारित इलाकों के लिए विकसित किया गया है. जिनकी खेती से किसान अच्छी पैदावार कर सकते हैं.
जवाहर कुटकी-8 (JK-8)
जवाहर कुटकी-8 एक खास तरह की जिसकी खेती विशेष रूप से मध्य प्रदेश में की जाती है. इस किस्म को जवाहर लाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित किया गया है. इसकी खासियत है कि इसकी खेती कम पानी या सूखे इलाकों में भी की जा सकती है. इसके पौधे 80 से 82 सेमी लंबे होते हैं और इसके दाने हल्के भूरे रंग के होते हैं. बात करें इस किस्म से होने वाली पैदावार की तो बता दें कि इस किस्म के हर एक पौधे से औसतन करीब 8 से 9 कल्ले निकलते हैं.
पीआरसी-3 कुटकी (PRC-3 Kutki)
कुटकी की ये किस्म अन्य किस्मों के मुकाबले जल्दी पकने वाली किस्म है. कुटकी की ये किस्म बुवाई के करीब 75 से 80 दिनों में पककर तैयार हो जाती है. बात करें इस किस्म से होने वाली पैदावार की तो इस किस्म की प्रति हेक्टेयर फसल से किसानों को औसतन 22 से 24 क्विंटल तक पैदावार मिलती है. इस किस्म की खेती से किसानों को अच्छा फायदा हो सकता है. साथ ही यह किस्म अपने औषधीय गुणों के लिए भी लोकप्रिय है.
जवाहर कुटकी-2 (JK-2)
जवाहर कुटकी-2 को कई जगहों पर डिंडोरी -2 (Dindori-2) के नाम से भी जाना जाता है. इस फसल को मुख्य रूप से आदिवासी इलाकों में प्रमुख फसल के रूप में उगाई जाती है. यह फसल बुवाई के करीब 60 से 80 दिनों में पककर तैयार हो जाती है. कुटकी की इस किस्म को कोदो की फसल के साथ उगाया जाता है.बता दें कि कुटकी की यह किस्म अगस्त के आखिरी हफ्ते से लेकर सितंबर के शुरुआत में पककर तैयार हो जाती है.