हाल ही में सोशल मीडिया पर एक वीडियो खूब वायरल हो रहा है, जिसमें सैकड़ों बत्तखें एक के बाद एक कतार में हरे-भरे धान के खेतों में चलते हुए दे रही हैं. देखने में यह दृश्य किसी फिल्म का सीन लगता है, लेकिन इसके पीछे छिपी है एक सैकड़ों साल पुरानी परंपरा, जो खेती, पर्यावरण और समुदाय के बीच गहरे तालमेल को दर्शाती है. केरल में खासकर त्रिशूर जिले के कोले वेटलैंड्स जैसे इलाकों में यह तरीका आज भी अपनाया जा रहा है. यह कोई नई तकनीक नहीं, बल्कि एक ऐसा तरीका है जो पीढ़ियों से चलता आ रहा है और आज के दौर में जब जैविक और टिकाऊ खेती की बात होती है, तब इसकी अहमियत और भी अधिक बढ़ जाती है. क्योंकि बत्तखें धान के खेत में जाकर फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को खा लेती हैं और खेत मल त्याग (बीट) करती हैं, जो जैविक खाद का काम करता है.
धान की कटाई के बाद होती है बत्तखों की एंट्री
केरल के त्रिशूर जिले के कोले वेटलैंड्स जैसे इलाकों में धान की फसल कटने के बाद या पौधे छोटे होने के समय खेतों में बत्तखें को छोड़ा जाता है. क्योंकि, इन खेतों में खूब पानी होता है और वे झील जैसे बन जाते हैं. यही समय होता है जब बत्तख पालक करने वाले किसान अपनी बत्तखों के झुंड को इन खेतों में छोड़ देते हैं. ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि बत्तखें खेतों में जलभराव से पैदा हुए कीटों को खा सकें. यह कीट फसल को भी नुकसान पहुंचाते हैं. बत्तखें इन खाकर फसल सुरक्षा में अहम भूमिका निभाती हैं.
फसल के लिए कीटनाशक की जरूरत नहीं पड़ती
इसके अलावा बत्तखें खरपतवार, कीड़े-मकोड़े, घोंघे जैसी चीजों को भी खा जाती हैं, जो फसल के लिए नुकसानदायक हो सकते हैं. यह तरीका खेतों को नैचुरली रूप से साफ करने के साथ किसान को कीटनाशक या खरपतवार नाशकों की जरूरत नहीं पड़ती है. इसके अलवा बत्तखों की एक और बड़ी भूमिका यह है कि इनके मल (बीट) में नाइट्रोजन और अन्य पोषक तत्व होते हैं जो मिट्टी में मिलकर प्राकृतिक खाद बना जाते है, जिसे मिट्टी अगली फसल के लिए उपजाऊ हो जाती है.
बिना रसायन के प्राकृतिक खेती
आज के समय में जब रासायनिक खाद और कीटनाशकों का ज्यादा इस्तेमाल हो रहा है, केरल की यह परंपरा एक बेहतरीन उदाहरण है कि खेती कैसे बिना रसायन के भी सफल हो सकती है. यह तरीका न केवल पर्यावरण के लिए अच्छा है, बल्कि मिट्टी की सेहत और गुणवत्ता को भी बनाए रखने में मदद करता है.
दूसरे जिलों से भी आते हैं बत्तख पालक
इस पूरी प्रक्रिया में समय और तालमेल बहुत जरूरी होता है. जैसे ही फसल कटती है, बत्तखों को खेत में छोड़ा जाता है और कुछ हफ्तों तक उन्हें चरने दिया जाता है. जब नए पौधे लगाए जाते हैं, तो बत्तखें एक बार फिर थोड़े समय के लिए वापस आती हैं, ताकि खेत में मौजूद जंगली घास और कीड़े खत्म हो सकें. वही यह केवल स्थानीय किसान ही नहीं, बल्कि केरल के अन्य जिलों से भी बत्तख पालक अपने झुंडों को ट्रकों में भरकर इन खेतों में लाते हैं. कुल मिलाकर इनकी उपस्थिति खेत और किसानों दोनों के लिए फायदेमंद साबित होती है.
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