बंपर पैदावार दे रही ICAR की नई चना किस्म, बुवाई के लिए किसानों की बनी पसंद

पूसा चना 4037 (अश्विनी) एक नई किस्म है जो उत्तर-पश्चिम मैदान क्षेत्र के लिए उपयुक्त है और यह कई बीमारियों को झेलने में सक्षम है. इसकी औसत पैदावार 2673 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है और इसमें 24.8 प्रतिशत प्रोटीन की मात्रा है, जो इसे एक उच्च पोषक आहार बनाती है.

Kisan India
नोएडा | Published: 4 May, 2025 | 01:59 PM

भारत के करोड़ों किसान आज भी पारंपरिक खेती के साथ-साथ उन्नत बीजों की तलाश में रहते हैं, जो कम लागत में ज्यादा उपज दें और मौसम की मार व बीमारियों से भी बचाव कर सके. ऐसे में चने की खेती करने वाले किसानों के लिए पूसा चना 4037 (अश्विनी) एक नई उम्मीद बनकर सामने आई है. इस किस्म को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI), नई दिल्ली ने विकसित किया है और यह खासतौर पर उत्तर-पश्चिम मैदान क्षेत्र के लिए उपयुक्त मानी गई हैं. यह न सिर्फ बेहतर उपज बल्कि बीमारियों के प्रति भी प्रतिरोधक हैं. जिसे किसानों को बेहतर उत्पादन, कम नुकसान और ज्यादा मुनाफा मिल सकता हैं.

कहां-कहां होगी खेती?

पूसा चना 4037 (अश्विनी) किस्म को पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्यों में आसानी से उगाया जा सकता है. इन क्षेत्रों में चने की खेती पहले से की जाती है, लेकिन यह नई किस्म वहां की जलवायु और मिट्टी के अनुकूल है, जिससे इसकी खेती और ज्यादा लाभकारी साबित हो सकती है.

पैदावार में जबरदस्त

पूसा चना 4037 (अश्विनी) की औसत पैदावार 2673 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है, जबकि इसकी अधिकतम पैदावार क्षमता 3646 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक की है. यानी एक हेक्टेयर जमीन पर किसान को करीब 36.4 क्विंटल तक चना मिल सकता है, जो पारंपरिक किस्मों की तुलना में कहीं ज्यादा है. बात करें इस किस्म में प्रोटीन की मात्रा की तो 24.8 प्रतिशत है, जो चने को एक उच्च पोषक आहार बनाती है. इसके साथ ही पूसा चना 4037 (अश्विनी) बीमारियों के प्रति पूरी तरह प्रतिरोधक है. जिसे किसानों को फसल का नुकसान काफी कम होगा.

मशीन से कटाई में भी आसान

मॉडर्न खेती की दिशा में यह किस्म मशीन से कटाई (machine harvesting) के अनुकूल भी है. आज के समय में जहां खेती में मजदूरों की कमी भी एक बड़ी समस्या बन चुकी है, तो वही किसान इस किस्म को हार्वेस्टर से काटी जा सकती है, इससे किसानों की मेहनत और लागत दोनों बच सकती हैं. साथी यह किस्म स्थायी खेती (sustainable farming) को भी बढ़ावा देती है जिसे कीटनाशकों की जरूरत कम होती है और पर्यावरण पर प्रभाव भी नहीं पड़ता.

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