आज मजदूर दिवस है, लेकिन क्या हम उन मजदूरों की असली जिंदगी को समझ पा रहे हैं, जो अपनी मेहनत से हमारे समाज को आगे बढ़ाते हैं? ऐसी ही कहानी है उत्तर प्रदेश के प्रयागराज जिले के शंकरगढ़ की. एक शांत और चुपचाप सा पहाड़ी इलाका लगता है. लेकिन यहां की खदानों में काम करने वाले मजदूरों की जिंदगी कुछ और ही कहती है. यह इलाका बलुआ पत्थर की खदानों के लिए जाना जाता है, जहां हजारों लोग दिन-रात पसीना बहाते हैं. उनकी मेहनत तो दिखती है, लेकिन क्या उन्हें उनके मेहनत का सही मुआवजा मिलता है? न तो उनकी मजदूरी तय है, न इलाज की कोई गारंटी. इन खदानों में काम करने वालों के लिए कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है, सिर्फ उम्मीद और एक जीवनभर की खट्टी-मीठी जद्दोजहद.
प्रयागराज इलाके में काम करने वाले एनजीओ से जुड़े रामबाबू तिवारी ने ‘किसान इंडिया’ से बातचीत में कहा कि सूरज की पहली किरण के साथ शंकरगढ़ के मजदूर खदानों में उतर जाते हैं. कोई मशीन नहीं, बस हथौड़ी और हिम्मत के सहारे पत्थर काटते हैं, तोड़ते हैं और पीठ पर लादते हैं. शाम तक शरीर थक कर चूर हो जाता है. लेकिन अगली सुबह फिर वही सिलसिला शुरू हो जाता है. यह काम केवल थकाने वाला नहीं, जानलेवा भी है. न हेलमेट, न मास्क, न दस्ताने, कोई सुरक्षा नहीं. हर सांस के साथ उड़ती धूल फेफड़ों में बैठती जाती है. तपती गर्मी हो या कंपकंपाती ठंड, इन मजदूरों का संघर्ष बिना रुके जारी रहता है.
दम तोड़ती सांसें, हर दिन एक नई लड़ाई
शंकरगढ़ की खदानों में काम करने वाले मजदूर हर दिन धूल और पत्थर के बारीक कणों के बीच जीते हैं. बिना मास्क, बिना किसी सुरक्षा के. यही धूल धीरे-धीरे उनके फेफड़ों में जमती है और बन जाती है बीमारी की वजह. जिससे सिलिकोसिस, अस्थमा और कई बार त्वचा से जुड़ी समस्याएं होने लगती है. सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि पास में कोई सरकारी अस्पताल नहीं और जो थोड़ा बहुत कमाते हैं, उससे इलाज मुश्किल है. इलाज कराएं या घर चलाएं, यही असली सवाल बन जाता है. रामबाबू बताते हैं कि यही कारण है कि कई लोग समय से पहले ही कमजोर पड़ जाते हैं, उनके पास कोई दूसरा सहारा नहीं होता.
मजदूर बस चलता पहिया है
शंकरगढ़ की खदानों में जो लोग काम कर रहे हैं, उन्हें कभी ये नहीं पता होता कि आज की दिहाड़ी मिलेगी भी या नहीं. मेहनताना इतना कम है कि कई बार सरकार की तय की गई न्यूनतम मजदूरी से भी नीचे चला जाता है. ठेकेदारों की मनमानी है, माफिया की पकड़ है. मजदूर सिर्फ आदेश मानता है, सवाल नहीं कर सकता. महीने भर बीमार पड़ जाओ तो कोई पूछने वाला नहीं. इसके अलावा औरतें भी काम पर जाती हैं, बच्चे भी हथौड़ी उठाने लगते हैं. स्कूल की उम्र में मजदूरी, खेल की उम्र में बोझ ये मजबूरी है या हमारी व्यवस्था की चुपचाप सहमति. हालांकि सरकार ने श्रमिक कल्याण बोर्ड और मनरेगा जैसी योजनाएं चलाई हैं, लेकिन शंकरगढ़ जैसे क्षेत्रों में इनका प्रभाव बहुत सीमित है. इसका कारण हैं भ्रष्टाचार, जागरूकता की कमी और स्थानीय प्रशासन की उदासीनता.
क्या किया जा सकता है?
रामबाबू तिवारी बताते हैं कि शंकरगढ़ के मजदूरों की समस्याओं का हल सही स्वास्थ्य सुविधाओं और शिक्षा में है. मोबाइल हेल्थ क्लिनिक शुरू किए जाएं और बच्चों के लिए स्कूल खोले जाएं. इसके अलावा, सुरक्षा के लिए मशीनों का इस्तेमाल किया जाए और ठेकेदारों के शोषण को रोकने के लिए सरकारी निगरानी को सख्त किया जाए. इसके साथ ही सही मजदूरी और सुरक्षा मानकों का पालन सुनिश्चित किया जाए.