एपिजूटिक अल्सरेटिव सिंड्रोम से तालाब में मर रहीं मछलियां, वैज्ञानिक ने फिश फार्मर्स को बताया बचाव के अचूक उपाय
प्रधान वैज्ञानिक डॉ. एम. मुरुगानंदम ने एकीकृत मछली पालन प्रणालियों के फायदों की जानकारी दी. उन्होंने कहा कि छोटे जलाशयों में मछली पालन से किसानों की कमाई बढ़ाई जा सकती है. इसके साथ ही किसान कुक्कुट पालन और सूअर पालन अपना सकते हैं. उन्होंने मछलियों में फैल रही बीमारियों से बचाव और ज्यादा उत्पादन हासिल करने के उपाय भी बताए.
भीषण ठंड ने जलीय जीवों को प्रभावित करना शुरू कर दिया है. मैदानी और गर्म इलाकों में तालाब में पाली जा रही मछलियों में इन दिनों एपिजूटिक अल्सरेटिव सिंड्रोम बीमारी फैल रही है, जिसकी वजह से भारी संख्या में मछलियों के मर रही हैं. आईसीएआर–भारतीय मृदा एवं जल संरक्षण संस्थान (ICAR–IISWC) के वैज्ञानिकों ने मछली पालकों को ठंड के दौरान अधिक उत्पादन हासिल करने और मछलियों को बीमारियों से बचाने के अचूक उपाय बताए हैं. वैज्ञानिकों ने संक्रमित मछलियों से अन्य मछलियों को बीमारी लगने से बचाने के दवा और छिड़काव का तरीका बताया है.
आईसीएआर–भारतीय मृदा एवं जल संरक्षण संस्थान (ICAR–IISWC) देहरादून के प्रधान वैज्ञानिक एवं प्रभारी (पीएमई एवं केएम इकाई) डॉ. एम. मुरुगानंदम ने कहा कि स्थानीय मछली पालकों को ठंड के दिनों में तालाब में मछलियों को बीमारियों से बचाने के लिए 26 से 29 दिसंबर 2025 तक सहकारी व्यापार मेले का आयोजन किया गया है. मेले में किसानों को नवाचारी मत्स्य पालन और एकीकृत कृषि प्रणालियों पर आधारित विभिन्न तकनीक के बारे में और उन्हें इस्तेमाल करने की जानकारी दी गई. इसके अलावा एकीकृत मछली पालन, कुक्कुट पालन और सूअर पालन से कमाई बढ़ाने का तरीका भी किसानों को बताया.
कुक्कुट, सूअर और मछली पालन से कमाई बढ़ाएं किसान
प्रधान वैज्ञानिक डॉ. एम. मुरुगानंदम ने एकीकृत मछली पालन प्रणालियों के फायदों की जानकारी दी. उन्होंने पर्वतीय इलाकों में जल चक्कियों (घराट) को मछली पालन प्रणालियों से जोड़ने का सुझाव दिया है. उन्होंने स्थानीय किसानों को अपनी कमाई बढ़ाने के लिए कुक्कुट पालन और सूअर पालन जैसे सहायक उद्यमों को अपनाने की सलाह दी. मछली पालन के लिए उन्होंने कहा कि ICAR–IISWC की ओर से विकसित तकनीक की मदद से 100 वर्ग मीटर क्षेत्र से लगभग 50 किलोग्राम मछली उत्पादन हासिल किया जा सकता है. इससे अगर किसी के पास छोटा जलाशय है तो वह भी मछली पालन शुरू कर सकता है.
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2.5 टन प्रति हेक्टेयर मछली उत्पादन मिलेगा
वैज्ञानिक ने कार्प मछली पालन तकनीकों के बारे में जानकारी देते हुए बताया कि फरवरी-मार्च के दौरान 1–2 मछली प्रति वर्ग मीटर की दर से बीज डालना चाहिए. वहीं, जुलाई-सितंबर के दौरान मछलियों की मात्रा बढ़ाई जा सकती है. उन्होंने कहा कि उन्नत तकनीकों से पर्वतीय परिस्थितियों में 100 वर्ग मीटर से 45–50 किलोग्राम मछली उत्पादन हासिल किया जा सकता है. इसके जरिए किसानों ने अपने तालाबों में उत्पादन को 800 किलोग्राम से बढ़ाकर लगभग 2.5 टन प्रति हे तक हासिल किया है.
धान के खेत में मछली पालन से दोहरी कमाई
धान के खेतों में केवल लगभग 4 फीसदी क्षेत्र में 600–900 किलोग्राम मछली प्रति हेक्टेयर सालाना उत्पादन हासलि किया गया है. साथ ही एकीकृत प्रणाली के कारण धान उत्पादन में 15–20 फीसदी की वृद्धि भी दर्ज की गई. इसके अलावा मछली पालन के लिए किसान बायोफ्लॉक तकनीक को भी अपना सकते हैं. जबकि, पशुधन आधारित एवं ग्रामीण कुक्कुट पालन उद्यमों के जरिए भी किसान अपनी कमाई को बढ़ा सकते हैं.
एपिजूटिक अल्सरेटिव सिंड्रोम में मछलियों में लाल घाव हो जाते हैं
डॉ. एम. मुरुगानंदम ने जल गुणवत्ता प्रबंधन एवं मत्स्य रोग नियंत्रण खासतौर पर एपिजूटिक अल्सरेटिव सिंड्रोम (EUS) पर उन्होंने विस्तृत जानकारी दी. उन्होंने कहा कि मछलियों में एपिज़ूटिक अल्सरेटिव सिंड्रोम (Epizootic Ulcerative Syndrome – EUS) एक गंभीर संक्रामक रोग है, जिसे आम भाषा में अल्सर रोग या घाव वाली बीमारी भी कहा जाता है. यह रोग मुख्य रूप से मीठे पानी की मछलियों में पाया जाता है और तेजी से फैलता है. EUS में मछलियों के शरीर पर पहले लाल धब्बे दिखाई देते हैं, जो धीरे-धीरे गहरे घाव (अल्सर) में बदल जाते हैं. ये घाव मांसपेशियों तक पहुंच जाते हैं, जिससे मछली कमजोर हो जाती है और कई बार मृत्यु भी हो जाती है.
संक्रामक रोग से मछलियों को बचाने के लिए इन उपायों का अपनाएं
एपिजूटिक अल्सरेटिव सिंड्रोम (EUS) बीमारी का प्रमुख कारण Aphanomyces invadans नामक फंगल रोगाणु है, हालांकि इसके फैलाव में बैक्टीरिया और वायरस की सहायक भूमिका भी देखी जाती है. समय पर उपाय करने से इस रोग से मछलियों को बचाया जा सकता है. उन्होंने कहा कि मछली पालक चूना का इस्तेमाल (100 किग्रा Ca(OH)₂ प्रति हे.), तालाब के पानी का बदलाव, पोटैशियम परमैंगनेट उपचार (0.5 पीपीएम), ब्रॉड स्पेक्ट्रम एंटीबायोटिक (सेप्ट्रॉन @ 100 मि.ग्रा./किग्रा. चारा) का इस्तेमाल करके रोग की रोकथाम की जा सकती है.