बरसात में पशुओं के लिए खतरा बनती हैं ये 6 बीमारियां, क्या है इलाज और उपाय.. पढ़ें डिटेल्स

बरसात का मौसम किसानों के लिए जितना फायदेमंद होता है, पशुपालकों के लिए उतना ही चुनौतीपूर्ण. इस मौसम में नमी, गंदगी और कीचड़ के कारण मवेशियों में छह गंभीर बीमारियों का खतरा कई गुना बढ़ जाता है.

नोएडा | Updated On: 3 Jul, 2025 | 04:12 PM

बरसात का मौसम खेती के लिए फायदेमंद जरूर होता है, लेकिन पशुपालन के लिहाज से यह सबसे संवेदनशील और चुनौतीपूर्ण समय माना जाता है. इस मौसम में बढ़ी हुई नमी, कीचड़ और साफ-सफाई की कमी से मवेशियों में बीमारियों का खतरा कई गुना बढ़ जाता है. खास बात यह है कि इन बीमारियों का असर केवल पशुओं की सेहत पर नहीं, बल्कि दूध उत्पादन, प्रजनन क्षमता और पशुपालक की आमदनी पर भी पड़ता है.

हर साल बरसात में हजारों मवेशी गंभीर बीमारियों की चपेट में आते हैं. इनमें से कई बीमारियां संक्रमण के जरिए तेजी से फैलती हैं और समय पर इलाज न मिलने पर जानलेवा भी हो सकती हैं. लेकिन अच्छी खबर ये है कि अगर पशुपालक समय रहते टीकाकरण करवाएं, बाड़ों की सफाई करें और कुछ बुनियादी सावधानियां अपनाएं तो इन खतरों से आसानी से बचा जा सकता है.

1. गलघोंटू रोग (Hemorrhagic Septicemia)

गलघोंटू रोग (Hemorrhagic Septicemia), बरसात के मौसम में मवेशियों पर सबसे ज्यादा हमला करने वाली बीमारी मानी जाती है. यह खासकर भैंसों में ज्यादा होती है. लेकिन कई बार गायें भी इसकी चपेट में आ जाती हैं. बरसात के मौसम में बढ़ी हुई नमी, कीचड़ और गंदगी इस बीमारी को फैलने में मदद करती है. यह एक तरह का जीवाणु जनित रोग है, जो बेहद संक्रामक होता है और अगर समय पर इलाज न हो तो पशु की जान भी जा सकती है.

हिमाचल प्रदेश सरकार के पशुपालन विभाग के मुताबिक, इस बीमारी के लक्षण शुरू में हल्के लग सकते हैं. लेकिन बाद तेजी से गंभीर रूप ले लेते हैं. इस बिमारी के होने से मवेशियों को तेज बुखार आता है, उनका गला सूज जाता है और सांस लेने में परेशानी होती है. इतना ही नहीं, सांस लेने के दौरान घुरघुराहट जैसी आवाज आती है, जो इस बीमारी की पहचान में मदद करती है. कई बार पशु खाना-पीना भी छोड़ देता है और बहुत सुस्त हो जाता है.

इस बीमारी से बचाव के लिए टीकाकरण सबसे जरूरी कदम है. पहला टीका 3 महीने की उम्र में लगवाना चाहिए, दूसरा एक महीने बाद और फिर हर साल बूस्टर डोज देना अनिवार्य है. यह टीका सरकार की ओर से मुफ्त में दिया जाता है. अगर पशु बीमार हो जाए तो तुरंत डॉक्टर की सलाह लें.

2. लंगड़ा बुखार (Black Quarter)

लंगड़ा बुखार एक गंभीर और जानलेवा बीमारी है जो खासतौर पर गोवंश यानी गायों में देखी जाती है. बरसात के मौसम में यह बीमारी तेजी से फैलती है और समय पर इलाज न हो तो पशु की जान भी जा सकती है.

इस बीमारी में पशु की पिछली या अगली टांगों में अचानक तेज सूजन आ जाती है. सूजन की वजह से वह लंगड़ाकर चलने लगता है या फिर पूरी तरह बैठ जाता है. कई बार स्थिति इतनी बिगड़ जाती है कि पशु हिल-डुल भी नहीं पाता और बेहद सुस्त हो जाता है.

इस बीमारी से बचने के लिए हर साल लंगड़ा बुखार यानी ब्लैक क्वार्टर का टीका लगवाना बहुत जरूरी है. सरकार की तरफ से यह टीका मुफ्त में लगाया जाता है. अगर किसी पशु में यह बीमारी हो जाए तो प्रोकेन पेनिसिलिन नाम की दवा काफी असरदार होती है. लेकिन ध्यान रहे, इलाज में थोड़ी भी देर हुई तो जानवर की जान भी जा सकती है. इसलिए जैसे ही टांगों में सूजन या लंगड़ाने जैसे लक्षण दिखें, तुरंत पशु डॉक्टर से इलाज करवाएं.

3. बाहरी और आंतरिक परजीवी संक्रमण

बरसात के मौसम में नमी और गंदगी के कारण पशुओं में बाहरी और आंतरिक परजीवियों का खतरा बहुत बढ़ जाता है. इस मौसम में जुएं, चिचड़ी या किलनी और पिस्सू (Flea) जैसे बाहरी परजीवी पशुओं की त्वचा पर चिपक जाते हैं और खून चूसते हैं. इससे पशु कमजोर हो जाते हैं, उनमें चिड़चिड़ापन आ जाता है और दूध या वजन का उत्पादन घटने लगता है. कुछ परजीवी जैसे चिचड़ी, टीका-फीनर जैसी गंभीर बीमारी भी फैला सकते हैं जो जानलेवा हो सकती है.

इनसे बचाव के लिए जरूरी है कि पशुओं को साफ-सुथरा रखा जाए, समय-समय पर दवाओं का छिड़काव किया जाए और डॉक्टर की सलाह से परजीवियों को मारने वाली दवाएं दी जाएं.

वहीं, आंतरिक परजीवी जैसे कि पेट, आंत और लीवर में रहने वाले कीड़े जानवर के खून और पोषण पर निर्भर रहते हैं. इससे पशु में खून की कमी हो जाती है, वह सुस्त और कमजोर हो जाता है. इस कारण उसकी वृद्धि रुक जाती है और प्रजनन क्षमता या दूध उत्पादन पर भी असर पड़ता है. आंतरिक परजीवियों की पहचान के लिए पशु के गोबर की जांच करवानी चाहिए और डॉक्टर की सलाह से उचित दवा देनी चाहिए ताकि समय रहते बीमारी को रोका जा सके.

4. मिल्क फीवर (Milk Fever)

मिल्क फीवर  दुधारू पशुओं की एक आम बीमारी है, जो ज्यादातर उन जानवरों में होती है जो बहुत अधिक दूध देती हैं. यह बीमारी आमतौर पर ब्याने के बाद पहले कुछ दिनों में होती है. इस दौरान जानवर के शरीर में कैल्शियम की कमी हो जाती है, जिससे उसकी हालत बिगड़ने लगती है.

इस बीमारी में पशु अचानक बहुत सुस्त हो जाता है. शरीर ठंडा पड़ने लगता है और मांसपेशियों में कमजोरी आ जाती है. कई बार पशु बैठ जाता है और उठ नहीं पाता और कुछ मामलों में वह बेहोश भी हो सकता है.

इससे बचाव के लिए जरूरी है कि ब्याने के बाद पशु को कैल्शियम, फॉस्फोरस और मिनरल मिक्चर मिलाकर चारा दिया जाए. इसके अलावा, 10-15 दिनों तक पूरा दूध नहीं दुहना चाहिए ताकि शरीर पर ज्यादा दबाव न पड़े. यदि मिल्क फीवर के लक्षण दिखें तो तुरंत इलाज कराना जरूरी है. इलाज के लिए पशु चिकित्सक की सलाह से कैल्शियम बोरोग्लूकोनेट का इंजेक्शन नस (IV) या त्वचा के नीचे (SC) देना होता है. समय पर इलाज से पशु की जान बचाई जा सकती है.

5. थनैला रोग (Mastitis)

थनैला रोग (Mastitis) दूध देने वाले पशुओं में होने वाली एक आम लेकिन गंभीर बीमारी है. यह रोग तब होता है जब पशु के थनों में संक्रमण हो जाता है. ध्यान रखें कि बरसात के मौसम में गंदगी और नमी की वजह से इसका खतरा और बढ़ जाता है.

इतना ही नहीं, इस बीमारी में थनों में सूजन आ जाती है, वे सख्त हो जाते हैं और दूध की क्वालिटी खराब हो जाती है. यही नहीं, पशु को थन छूने पर दर्द होता है और कई बार दूध में पस या खून भी आ सकता है. अगर समय पर इलाज न किया जाए तो दूध उत्पादन में भारी गिरावट आ सकती है.

इसके बचाव के लिए जरूरी है कि दूध निकालने से पहले और बाद में थनों को एंटीसेप्टिक सोल्यूशन से अच्छी तरह धोया जाए. दूध निकालते समय सफाई का पूरा ध्यान रखें और बर्तन पूरी तरह साफ हों. साथ ही, पशु को विटामिन ए, ई, जिंक और मिनरल मिक्चर वाला संतुलित आहार देना चाहिए ताकि उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बनी रहे. अगर इस तरह के लक्षण नजर आएं तो बिना देर किए पशु चिकित्सक से संपर्क कर इलाज कराना चाहिए. समय पर ध्यान देने से इस बीमारी से बचा जा सकता है.

6. किलनी और टीका-फीनर संक्रमण

चिचड़ी या किलनी (Tick) एक खतरनाक बाहरी परजीवी है, जो बरसात के मौसम में तेजी से बढ़ती है. यह केवल जानवरों का खून चूसती ही नहीं, बल्कि टीका-फीनर (Tick Fever) जैसी घातक बीमारी भी फैलाती है. जब यह परजीवी जानवर की त्वचा से खून चूसता है तो साथ में खतरनाक रोगाणु भी शरीर में पहुंचा देता है, जिससे जानवर को तेज बुखार, कमजोरी, भूख न लगना और पीलिया जैसी समस्याएं हो सकती हैं. अगर समय पर इलाज न किया जाए तो इससे पशु की मौत तक हो सकती है.

बचाव के लिए जरूरी है कि पशुओं के बाड़े की नियमित सफाई हो. इसके अलावा, ध्यान देने की बात यह है कि जहां पशु रहते हैं वहां नमी और गंदगी जमा न होने दें. साथ ही, पशु की त्वचा पर दवा का छिड़काव करें ताकि किलनी न लग सके. डॉक्टर की सलाह से एंटी-पैरासाइटिक दवाएं भी दी जा सकती हैं.

बरसात के समय पशु की नियमित जांच और निगरानी बहुत जरूरी है. अगर समय रहते किलनी को हटाने का इलाज शुरू कर दिया जाए तो इस खतरे से बचा जा सकता है.

Published: 3 Jul, 2025 | 05:35 PM