धान की नई किस्मों को लेकर ICAR घिरा विवादों में, NGO ने लगाए फर्जीवाड़े के आरोप
NGO का कहना है कि ICAR के इन दावों के पीछे कोई ठोस वैज्ञानिक आधार नहीं है. संगठन के मुताबिक, ICAR की अपनी रिपोर्टों से पता चलता है कि कई परीक्षणों में पर्याप्त डेटा ही मौजूद नहीं था. वहीं, ICAR ने NGO के सभी आरोपों को खारिज करते हुए कहा है कि ये राजनीतिक और विकास विरोधी मानसिकता से प्रेरित हैं.
Genome Edited Rice: भारत में कृषि अनुसंधान का सबसे बड़ा संस्थान भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) इन दिनों विवादों में है. एक गैर-सरकारी संगठन (NGO) कोएलिशन फॉर ए जीएम-फ्री इंडिया ने ICAR पर गंभीर आरोप लगाते हुए कहा है कि उसने जीनोम-संपादित धान की दो नई किस्मों के बारे में झूठे दावे किए हैं. NGO का कहना है कि इन दावों के पीछे कोई ठोस वैज्ञानिक प्रमाण नहीं हैं, और यह पूरा मामला एक तरह की वैज्ञानिक धोखाधड़ी जैसा है.
दो जीनोम एडिटेड धान की किस्में बनीं विवाद का केंद्र
Deccan herald की खबर के अनुसार, यह विवाद दो नई जीनोम एडिटेड धान की किस्मों- पुसा डीएसटी-1 (Pusa DST-1) और डीआरआर धन 100 कमला (DRR Dhan 100 Kamla) को लेकर है. इन किस्मों को इसी साल मई महीने में केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने लॉन्च किया था. ICAR का दावा था कि ये किस्में परंपरागत धान की तुलना में कहीं अधिक उत्पादक हैं और पर्यावरण के लिए भी फायदेमंद साबित होंगी.
ICAR ने कहा था कि इन धान किस्मों से 19 फीसदी ज्यादा उत्पादन, 20 फीसदी कम ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन, और 7,500 मिलियन घनमीटर तक सिंचाई जल की बचत होगी. साथ ही, ये किस्में सूखा, लवणीयता (salinity) और जलवायु परिवर्तन के असर को झेलने में अधिक सक्षम हैं.
NGO का आरोप: दावा झूठा, डेटा अधूरा
लेकिन NGO का कहना है कि ICAR के इन दावों के पीछे कोई ठोस वैज्ञानिक आधार नहीं है. संगठन के मुताबिक, ICAR की अपनी रिपोर्टों से पता चलता है कि कई परीक्षणों में पर्याप्त डेटा ही मौजूद नहीं था.
उदाहरण के तौर पर, पुसा डीएसटी-1 किस्म पर 2023 के परीक्षणों में यह साफ लिखा गया कि बीज की पर्याप्त मात्रा उपलब्ध नहीं होने के कारण सूखा और लवणीयता सहनशीलता का मूल्यांकन नहीं किया गया. यानी, जिन गुणों को इस धान की सबसे बड़ी विशेषता बताया जा रहा था, उनका परीक्षण ही नहीं हुआ.
इसके अलावा, NGO ने बताया कि अगले साल यानी 2024 में किए गए परीक्षण भी सीमित थे. केवल तीन स्थानों पर परीक्षण किया गया, और उन्हीं नतीजों के आधार पर पूरे देश में किस्म को बढ़ावा देने की बात कही गई. NGO ने दावा किया कि कई जगहों पर यह धान पारंपरिक किस्मों से बेहतर प्रदर्शन नहीं कर सका.
‘कमला’ धान के आंकड़ों पर भी सवाल
NGO ने ‘कमला’ किस्म पर भी गंभीर सवाल उठाए हैं. इसके अनुसार, 2023 में 19 परीक्षण स्थलों में से 8 पर और 2024 में 14 स्थलों में से 8 पर यह धान कमजोर साबित हुआ. औसत उपज वृद्धि सिर्फ 2.8 फीसदी रही, लेकिन ICAR की रिपोर्ट के सारांश में 21 फीसदी वृद्धि दिखाई गई.
इसी तरह, ICAR ने दावा किया था कि यह धान जल्दी फूलता है, जिससे फसल जल्दी तैयार हो जाती है. परंतु डेटा से पता चला कि कमला धान की औसत फूलने की अवधि 101 दिन रही, जबकि इसकी मूल किस्म की अवधि 104 दिन थी. कई जगहों पर तो यह धान देरी से फूलने की प्रवृत्ति दिखा रहा था.
ICAR का जवाब: आरोप निराधार और राजनीतिक
ICAR ने NGO के सभी आरोपों को खारिज करते हुए कहा है कि ये राजनीतिक और विकास विरोधी मानसिकता से प्रेरित हैं. परिषद का कहना है कि दोनों किस्मों को ऑल इंडिया कोऑर्डिनेटेड रिसर्च प्रोजेक्ट (AICRP) के तहत देशभर के 24 से अधिक स्थानों पर परीक्षण के बाद ही मंजूरी दी गई है.
ICAR ने यह भी कहा कि धान की नई किस्मों को मंजूरी देने में सीड एक्ट 1966 और केंद्रीय उपसमिति के सभी मानक प्रोटोकॉल का पालन किया गया है. संस्थान के मुताबिक, किसी भी किस्म को जल्दबाजी में जारी नहीं किया गया और न ही डेटा में कोई हेराफेरी की गई है.
किसानों के बीच बढ़ी उलझन
इस पूरे विवाद से किसानों में भ्रम की स्थिति पैदा हो गई है. एक ओर सरकार और ICAR इन किस्मों को कृषि क्षेत्र की बड़ी उपलब्धि बता रहे हैं, वहीं NGO इनकी वैज्ञानिक विश्वसनीयता पर सवाल उठा रहा है.
कई कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि जीनोम एडिटेड फसलों को लेकर भारत में अभी भी पर्याप्त पारदर्शिता और निगरानी की जरूरत है. जब तक ठोस प्रमाण और दीर्घकालिक परिणाम सामने नहीं आते, तब तक किसानों को इन दावों पर आंख मूंदकर भरोसा नहीं करना चाहिए.