प्रतिभा सारस्वत | आपने बॉलीवुड अभिनेता शाहरुख खान की फिल्म ‘स्वदेश’ देखी होगी, जिसमें वह अमेरिका से अपने गांव भारत लौटते हैं और फिर कभी वापस नहीं जाते. फिल्म में मोहन भार्गव (शाहरुख) को यह एहसास होता है कि उन्हें वापस अमेरिका जाने के बजाय अपने देश में रहकर उसके लिए कुछ करना चाहिए. यह एक फिल्मी कहानी थी, जिसमें एक कलाकार था और उसके इर्द-गिर्द कुछ काल्पनिक पात्र थे. लेकिन आज हम आपको ऐसी ही एक सच्ची कहानी सुनाने जा रहे हैं, जिसमें एक युवा लड़का विदेश जाता, पढ़ता है, नौकरी पाता है लेकिन उसका मन नहीं लगता, वो वापस अपने गांव लौटता है और वो बीड़ा उठाता है, अपने इलाके की तस्वीर बदलने का. यह कहानी है उत्तराखंड के चंपावत जिले के छोटे से गांव करौली के रहने वाले नीरज जोशी की.
नीरज ने उत्तराखंड में शुरुआती पढ़ाई पूरी करने के बाद स्कॉलरशिप पाकर फ्रांस में दो बार उच्च शिक्षा हासिल की, उन्हें वहां एक अच्छी नौकरी भी मिली जहां तनख्वाह भी अच्छी थी. लेकिन उसके दिल में देश, राज्य और अपने गांव की मिट्टी के लिए एक अलग ही जुड़ाव था. एक खालीपन जो उसे विदेश की चमक-धमक के बीच भी चैन नहीं लेने देता था. आज नीरज अपने उत्तराखंड के सुदूर गांव में हैं, जहां तक अभी सड़क नहीं पहुंची है लेकिन वो वहां किस मिशन पर हैं, उनके संघर्ष और सफलता की कहानी क्या है, आइए जानते हैं इस प्रेरक सफर के बारे में.
आईटी नहीं, खेती चुनी करियर के रूप में
जहां अधिकतर युवा इंजीनियरिंग या मैनेजमेंट की ओर रुख करते हैं, वहीं नीरज ने खेती को ही अपना भविष्य बनाने का निर्णय लिया. उनके पिता आईटीबीपी में थे, और खेती सिर्फ एक अतिरिक्त आमदनी का साधन थी. लेकिन नीरज को बचपन से ही खेतों और पौधों से लगाव रहा. यही लगाव उन्हें डीएसबी कॉलेज नैनीताल से बीएससी और फिर पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय से एमएससी तक ले गया.
फ्रांस की जमीन से अपने गांव की मिट्टी तक
नीरज को फ्रांस के मॉन्टपेलियर सुपाग्रो विश्वविद्यालय में एग्रोडिजाइन में मास्टर्स करने का मौका मिला. वहां उन्होंने फील्ड वर्क, किसानों से संवाद और आधुनिक कृषि तकनीकों को करीब से सीखा. उन्हें दो बार फ्रांस जाने का अवसर मिला और अच्छी नौकरी के प्रस्ताव भी मिले, लेकिन कुछ अधूरा था, अपने गांव के लिए कुछ करने की चाह. जिसके बाद उन्होंने वो चमकती विदेशी नौकरी छोड़ दी और भारत लौट आए.
तीन दशक पुरानी बंजर जमीन फिर से मुस्कराई
जिस जमीन को नीरज के परिवार ने 30 साल पहले छोड़ दिया था, वहीं उन्होंने खेती की शुरुआत की. इस काम में उनका साथ दिया उनके चाचा सुरेश चंद्रा और भाईयों ने. इस दौरान सरकारी विभागों जैसे पर्यटन विभाग चंपावत, कृषि विभाग और उत्तराखंड सरकार द्वारा संचालित योजनाओं से मिलने वाले फायदे से नीरज ने उस बंजर भूमि को फिर से उपजाऊ बनाया. आज वहां 500 से अधिक औषधीय और फलदार पौधे लहलहा रहे हैं जैसे तुलसी, अश्वगंधा, हल्दी, नींबू, सेब, आम और कीवी. उनकी खेती पूरी तरह जैविक (ऑर्गेनिक) है और वे स्थानीय व नैचुरल उत्पादों को सीधे बाजार तक पहुंचाने का काम कर रहे हैं.
एग्रो-टूरिज्म: जहां मेहमान खेती का अनुभव लेते हैं
नीरज ने सिर्फ खेती नहीं की, बल्कि अपने पुराने खंडहरनुमा घर को होमस्टे(द निर्वाण होमस्टे) में बदला, जहां देसी ही नहीं, बड़ी संख्या में विदेशी पर्यटक भी रुकते हैं, और खेती-बाड़ी का अनुभव भी लेते हैं. नीरज कहते हैं, “मुझे फ्रांस में एग्रो-टूरिज्म का अनुभव मिला. वहीं से विचार आया कि अपने गांव में भी ऐसा ही कुछ किया जाए. गांव लौटने के लिए वजह नहीं, बस जज्बा चाहिए”
अब उनके मेहमान खेतों में काम भी करते हैं, जैविक खेती को समझते हैं और पहाड़ी जीवनशैली का आनंद लेते हैं. इससे न केवल स्थानीय अर्थव्यवस्था को बल मिल रहा है, बल्कि गांव में रोजगार के नए अवसर भी बन रहे हैं.
हर युवा के लिए एक सीख
नीरज के इस सफल प्रयास को देखते हुए अब उत्तराखंड में युवा अपने गांव लौटकर फिर से बंजर होते पहाड़ों को हरा भरा बना रहे हैं. नीरज जोशी ने दिखा दिया कि अगर लगन हो तो खेती भी करियर बन सकती है, और गांव भी भविष्य. उनके इस प्रयास से न केवल पर्यावरण को लाभ हो रहा है, बल्कि लोगों की सोच भी बदल रही है. आज वे सिर्फ किसान नहीं हैं, बल्कि एक रोल मॉडल हैं उन युवाओं के लिए जो अपनी जड़ों से जुड़ना चाहते हैं.