साल 2025 प्याज किसानों के लिए राहत की जगह गहरी पीड़ा और आर्थिक संकट लेकर आया. जिस फसल को किसान “नकदी फसल” मानकर उगाते हैं, वही प्याज इस पूरे साल उनकी कमर तोड़ती रही. खेत से मंडी तक प्याज पहुंचा, लेकिन कीमतें इतनी कम रहीं कि किसान लागत भी नहीं निकाल पाए. महाराष्ट्र राज्य प्याज उत्पादक किसान संगठन की ताजा रिपोर्ट ने इस सच्चाई को आंकड़ों के साथ सामने रखा है, जिसने नीति और व्यवस्था दोनों पर सवाल खड़े कर दिए हैं.
लागत बढ़ी, लेकिन कीमतें गिरती रहीं
किसान संगठन के अनुसार, 2025 में प्याज की उत्पादन लागत औसतन 22 से 25 रुपये प्रति किलो रही. इसमें बीज, खाद, कीटनाशक, सिंचाई, मजदूरी और परिवहन का खर्च शामिल है. इसके बावजूद किसानों को पूरे साल प्याज बेचने पर सिर्फ 8 से 18 रुपये प्रति किलो ही मिल पाए. यानी हर किलो प्याज पर सीधा नुकसान.
संगठन के अध्यक्ष भारत दिघोले का कहना है कि यह हालात किसी एक महीने या एक सीजन तक सीमित नहीं रहे, बल्कि पूरे साल किसानों को घाटे में ही फसल बेचनी पड़ी. राज्य की विभिन्न कृषि उपज मंडी समितियों से जुटाए गए आंकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं.
महीने-दर-महीने नुकसान का हिसाब
बिजनेस लाइन की खबर के अनुसार, अगर पूरे साल के औसत भाव देखें तो जनवरी में प्याज 20 रुपये किलो के आसपास बिका, फरवरी में यह 22 रुपये तक पहुंचा, लेकिन इसके बाद गिरावट शुरू हो गई. मार्च में औसत भाव 14 रुपये रहा, अप्रैल में यह सीधे 8 रुपये तक गिर गया. मई में 9 रुपये, जून में 13 रुपये, जुलाई और अगस्त में करीब 12 रुपये प्रति किलो के दाम मिले.
सितंबर में फिर कीमतें 9 रुपये पर आ गईं, अक्टूबर में 10 रुपये और नवंबर में 12 रुपये के आसपास रहीं. दिसंबर के पहले पखवाड़े में भी भाव 14 से 15 रुपये से ज्यादा नहीं पहुंचे. महीने के आखिरी हिस्से में कीमतें बढ़कर करीब 18 रुपये जरूर हुईं, लेकिन तब तक किसान सालभर का नुकसान झेल चुके थे.
कर्ज के दलदल में धंसते किसान
लगातार घाटे के कारण प्याज उत्पादक किसानों पर कर्ज का बोझ बढ़ता चला गया. कई किसानों को बीज और खाद खरीदने के लिए सहकारी समितियों या साहूकारों से कर्ज लेना पड़ा. लेकिन जब मंडी में सही दाम नहीं मिले, तो पुराने कर्ज चुकाने के लिए नए कर्ज लेने की मजबूरी पैदा हो गई.
किसानों का कहना है कि प्याज जैसी फसल में लागत निकालना भी मुश्किल हो जाए, तो खेती को टिकाऊ बनाना नामुमकिन हो जाता है. कई छोटे और सीमांत किसान अब प्याज की खेती छोड़ने पर भी विचार करने लगे हैं.
बफर स्टॉक बना किसानों की मुसीबत?
साल 2025 में केंद्र सरकार ने तीन लाख टन प्याज की खरीद कर बफर स्टॉक बनाने का फैसला किया था. यह जिम्मेदारी नाफेड और एनसीसीएफ को सौंपी गई थी. उद्देश्य यह बताया गया था कि बाजार में कीमतों को संतुलित रखा जाए, ताकि उपभोक्ताओं को राहत मिले और किसानों को भी न्यूनतम समर्थन मिल सके.
लेकिन किसान संगठनों का आरोप है कि यह व्यवस्था जमीन पर उलटी पड़ गई. किसानों का कहना है कि खरीद सीधे किसानों से नहीं हुई, बल्कि इसमें ठेकेदारों और बिचौलियों की बड़ी भूमिका रही. कई जगह कागजी लेन-देन के जरिए घटिया क्वालिटी की प्याज भी खरीदी गई, जिससे कुछ चुनिंदा लोगों को फायदा हुआ और असली किसान पीछे रह गए.
बाजार में सस्ते बफर स्टॉक से और बिगड़े हालात
किसान संगठन का आरोप है कि बफर स्टॉक से प्याज को बेहद कम दामों पर बाजार में उतारा गया. इससे खुले बाजार में कीमतें कभी संभल ही नहीं पाईं. जब भी भाव थोड़ा बढ़ने की कोशिश करते, सरकारी स्टॉक से सस्ती प्याज आ जाती और बाजार फिर टूट जाता.
भारत दिघोले का कहना है कि बफर स्टॉक का मकसद किसानों और उपभोक्ताओं दोनों को सहारा देना होता है, लेकिन 2025 में इसका इस्तेमाल इस तरह हुआ कि किसान आर्थिक रूप से घुटते चले गए.
जांच और कार्रवाई की मांग
महाराष्ट्र राज्य प्याज उत्पादक किसान संगठन ने इस पूरे मामले को गंभीर नीति विफलता बताया है. संगठन ने मांग की है कि 2025 में हुए प्याज बफर स्टॉक की खरीद और वितरण की उच्च स्तरीय न्यायिक जांच कराई जाए. इसके साथ ही नाफेड और एनसीसीएफ के जरिए हुई सभी खरीद की वित्तीय ऑडिट हो और दोषी अधिकारियों, ठेकेदारों व बिचौलियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाए.
किसान नेताओं का कहना है कि अगर उनकी मांगों पर जल्द कार्रवाई नहीं हुई, तो वे राज्यभर की मंडियों को बंद करने, नाफेड और एनसीसीएफ के दफ्तरों के सामने प्रदर्शन करने और जरूरत पड़ने पर दिल्ली तक आंदोलन ले जाने से भी पीछे नहीं हटेंगे.