उत्तराखंड का हरा खजाना खतरे में! बारिश और भूस्खलन से हर साल खत्म हो रहे देवदार

देवदार के नुकसान का सटीक आंकड़ा निकालना मुश्किल है. लेकिन अनुमान है कि हर साल मानसून में हजारों पेड़ बर्बाद हो जाते हैं. कभी-कभी यह संख्या 10,000 से भी ज्यादा हो जाती है.

नई दिल्ली | Published: 23 Aug, 2025 | 08:24 AM

उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है. यहां की वादियां, नदियां और बर्फ से ढकी चोटियां दुनिया भर के लोगों को अपनी ओर खींचती हैं. लेकिन इस सुंदरता के बीच एक बड़ी चिंता भी छिपी है देवदार के पेड़, जिन्हें यहां का ‘हरा सोना’ कहा जाता है, हर साल भारी बारिश और भूस्खलन की भेंट चढ़ जाते हैं. यह सिर्फ प्रकृति का नुकसान नहीं है, बल्कि उत्तराखंड की सांस्कृतिक और आर्थिक धरोहर पर भी संकट है.

देवदार-सिर्फ पेड़ नहीं, उत्तराखंड की पहचान

देवदार के पेड़ को स्थानीय लोग “देवताओं का वृक्ष” कहते हैं. यह सिर्फ एक पेड़ नहीं बल्कि उत्तराखंड की आत्मा है. इसकी लकड़ी मजबूत और सुगंधित होती है, जिसे घर बनाने से लेकर मंदिरों तक में उपयोग किया जाता है. यही कारण है कि इसे “ग्रीन गोल्ड” यानी “हरा सोना” कहा जाता है. यह पेड़ पहाड़ों को मजबूती देता है और मिट्टी को बांधे रखता है.

बारिश क्यों बनती है दुश्मन?

आप सोच रहे होंगे कि इतने मजबूत पेड़ आखिर बारिश में कैसे बह जाते हैं? असल में, लगातार बारिश पहाड़ों की मिट्टी को कमजोर कर देती है.

  • भूस्खलन से मिट्टी और चट्टान खिसक जाती है और सैकड़ों पेड़ जड़ों समेत गिर जाते हैं.
  • नदियों का कटाव किनारे पर खड़े पेड़ों की जड़ों को कमजोर कर देता है और वे बह जाते हैं.
  • बादल फटने जैसी आपदाओं में कई सौ साल पुराने पेड़ भी मिनटों में खत्म हो जाते हैं.

हर साल कितना नुकसान?

देवदार के नुकसान का सटीक आंकड़ा निकालना मुश्किल है. लेकिन अनुमान है कि हर साल मानसून में हजारों पेड़ बर्बाद हो जाते हैं. कभी-कभी यह संख्या 10,000 से भी ज्यादा हो जाती है. अगर एक पेड़ की औसत कीमत करीब 70,000 रुपये मानी जाए, तो केवल 5,000 पेड़ों के नष्ट होने पर भी सालाना 35 करोड़ रुपये का नुकसान होता है. बड़ी आपदाओं में यह आंकड़ा सैकड़ों करोड़ तक पहुंच जाता है.

पर्यावरण पर गहरा असर

  • देवदार का गिरना सिर्फ लकड़ी का नुकसान नहीं है. इसके साथ पूरी पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित होता है.
  • मिट्टी का कटाव तेज हो जाता है और भविष्य में भूस्खलन का खतरा बढ़ता है.
  • पक्षियों और छोटे जीवों का घर उजड़ जाता है.
  • जल स्रोतों पर दबाव पड़ता है और पहाड़ी गांवों में पानी की कमी बढ़ जाती है.

क्या है समाधान?

पूरी तरह से इस नुकसान को रोकना मुश्किल है, लेकिन इसे कम किया जा सकता है. सरकार और वन विभाग कई कदम उठा रहे हैं जैसे

  • संवेदनशील इलाकों में चेक डैम और रिटेनिंग वॉल बनाना.
  • ढलानों पर तेजी से बढ़ने वाली घास और पौधे लगाना ताकि मिट्टी की पकड़ मजबूत हो सके.
  • स्थानीय समुदायों को जंगल बचाने और पेड़ लगाने में सक्रिय रूप से जोड़ना.