उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में 5 अगस्त की रात जो कुछ हुआ, उसने एक बार फिर पूरे देश को झकझोर कर रख दिया. तेज बारिश के बीच बादल फटने की घटना ने न सिर्फ जान-माल को नुकसान पहुंचाया, बल्कि लोगों के दिलों में 2013 की केदारनाथ आपदा की यादें ताजा कर दीं. उस भयावह त्रासदी में हजारों लोगों की जान गई थी, और अब ऐसा लग रहा है कि हिमालयी क्षेत्र एक बार फिर उसी रास्ते की ओर बढ़ रहा है.
उत्तरकाशी में तेज बारिश और बादल फटने की यह घटना अकेली नहीं है, बल्कि यह आने वाले समय में और भी बड़ी आपदाओं की चेतावनी है. सवाल उठता है कि आखिर क्यों पहाड़ों में लगातार इतनी तेज और असामान्य बारिश हो रही है? क्या जलवायु परिवर्तन इसका कारण है या इंसानी लापरवाही?
क्या सामान्य बारिश से अलग है यह मौसमी कहर?
भारत में मानसून हर साल आता है, लेकिन इस बार की बारिश कुछ अलग है. उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में पिछले कुछ हफ्तों से लगातार भारी बारिश हो रही है. मौसम वैज्ञानिकों का मानना है कि इसके पीछे दो बड़े कारण हैं, पहला है मानसून ट्रफ, और दूसरा है वेस्टर्न डिस्टर्बेंस.
मानसून ट्रफ एक कम दबाव की रेखा होती है, जो अरब सागर और बंगाल की खाड़ी से नमी खींचकर लाती है. जब यह रेखा हिमालय की तराई के पास होती है, तो भारी बारिश की संभावना बहुत बढ़ जाती है. दूसरी तरफ, पश्चिमी विक्षोभ यानी वेस्टर्न डिस्टर्बेंस, जो ईरान और अफगानिस्तान की ओर से आता है, जब मानसून ट्रफ से मिल जाता है, तो बारिश की ताकत दोगुनी हो जाती है. यही कारण है कि हाल की बारिश इतनी विनाशकारी सिद्ध हो रही है.
उत्तरकाशी का दर्द और जमीन पर तबाही का मंजर
बादल फटने की यह घटना उत्तरकाशी के हर्षिल और उसके आसपास के गांवों में कहर बनकर टूटी. तेज बारिश से नदियां उफान पर आ गईं, जिससे कई घरों और खेतों में पानी भर गया. गांवों का संपर्क टूट गया, सड़कें बह गईं और लोग घरों में फंसे रह गए. राहत और बचाव दल अब भी लगातार काम कर रहे हैं, लेकिन खराब मौसम और टूटे रास्ते उनके प्रयासों को धीमा कर रहे हैं.
ऐसी ही स्थिति हिमाचल के कुल्लू और मंडी जिलों में भी देखी गई है, जहां भारी बारिश से मकान ढह गए और लोग बेघर हो गए. पहाड़ों पर पानी के साथ-साथ मलबा और पत्थर भी तेजी से बहते हैं, जिससे नुकसान कई गुना बढ़ जाता है.
2013 की केदारनाथ त्रासदी की डरावनी यादें
जब उत्तरकाशी में बादल फटा, तो लोगों की आंखों के सामने 2013 की वो तस्वीरें घूमने लगीं, जब केदारनाथ में अचानक आई बाढ़ और मूसलधार बारिश ने हजारों जानें लील ली थीं. उस त्रासदी ने पूरे देश को हिला दिया था. पर दुख की बात यह है कि इतने बड़े सबक के बावजूद आज भी हम पहाड़ों की नाजुकता को नजरअंदाज कर रहे हैं.
तेजी से बढ़ता निर्माण कार्य, अनियोजित पर्यटन, पेड़ों की कटाई और जलवायु परिवर्तन ने पहाड़ों को बेहद संवेदनशील बना दिया है. अब एक छोटी सी प्राकृतिक घटना भी बहुत बड़ी आपदा का रूप ले सकती है.
बादल फटने का वैज्ञानिक कारण क्या है?
बादल फटना यानी क्लाउडबर्स्ट का मतलब होता है, एक सीमित इलाके में बहुत कम समय में अत्यधिक बारिश होना. मौसम विभाग के अनुसार, यदि किसी 20-30 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में एक घंटे में 100 मिमी या उससे ज्यादा बारिश हो जाए, तो उसे बादल फटना कहा जाता है.
यह घटना तब होती है जब नमी से भरे बादल पहाड़ियों से टकराते हैं, और अचानक ऊंचाई पर पहुंचकर उनका घनत्व बढ़ जाता है. जब बादल इतने भारी हो जाते हैं कि उनमें पानी रोकने की क्षमता खत्म हो जाती है, तो वे एकसाथ तेज बारिश के रूप में फट जाते हैं. यह आमतौर पर 1000 से 2500 मीटर की ऊंचाई पर होता है, और हिमालयी क्षेत्रों में इसकी संभावना सबसे अधिक होती है.
क्यों बढ़ रहीं हैं पहाड़ों में ऐसी घटनाएं?
हिमाचल और उत्तराखंड जैसे राज्यों में क्लाउडबर्स्ट अब आम होते जा रहे हैं. इसका मुख्य कारण जलवायु परिवर्तन है, जो अब सिर्फ किताबों की बातें नहीं रह गईं, बल्कि धरातल पर दिखाई देने लगी हैं. तापमान बढ़ने से मानसून की हवाएं ज्यादा नमी लेकर आती हैं, जो पहाड़ियों से टकराकर बादल फटने का कारण बन जाती हैं.
इसके अलावा, जंगलों में आग लगना, पेड़ों की अंधाधुंध कटाई, अवैज्ञानिक निर्माण, और कचरे को जलाना जैसे इंसानी कारण भी वातावरण को अस्थिर बना रहे हैं. पहाड़ों में पर्यटन का दबाव भी बहुत बढ़ गया है. अधिक वाहन, अधिक निर्माण और बुनियादी ढांचे की कमी से प्राकृतिक आपदाओं की तीव्रता और खतरा दोनों बढ़ गए हैं.
क्या हम सीख लेंगे या फिर से भुगतेंगे?
बादल फटने जैसी घटनाएं हमें बार-बार चेतावनी दे रही हैं कि प्रकृति के साथ खिलवाड़ अब महंगा पड़ रहा है. लेकिन यदि हमने अभी भी इन संकेतों को नजरअंदाज किया, तो 2013 जैसी त्रासदियां बार-बार लौटेंगी.
हमें पर्यावरण के प्रति संवेदनशील नीतियां बनानी होंगी. पहाड़ों में निर्माण कार्यों पर नियंत्रण, वृक्षारोपण को बढ़ावा, वैज्ञानिक योजना के तहत पर्यटन और सख्त नियमों के तहत विकास कार्य ही हमें इन आपदाओं से बचा सकते हैं.