दुनिया के लिए मिसाल है नागालैंड की ‘जाबो’ खेती, जो बाढ़ में भी देती है भरपूर फसल

जाबो खेती में सिंचाई के पानी के साथ जो जैविक खाद खेतों में जाती है, वह रासायनिक खाद की आवश्यकता को पूरी तरह खत्म कर देती है. इससे न केवल खेत की उर्वरता बनी रहती है, बल्कि मिट्टी का कटाव और प्रदूषण भी रोका जाता है.

नई दिल्ली | Updated On: 3 Jul, 2025 | 11:58 AM

नागालैंड के फेक जिले में बसे एक छोटे से गांव ‘किक्रुमा’ के लोग वो कर दिखाते हैं, जो बाकी दुनिया के लिए किसी चमत्कार से कम नहीं. जहां देश के कई हिस्सों में मानसून की बारिश बर्बादी लेकर आती है, वहीं किक्रुमा के ग्रामीण उसी पानी को खेतों की बरकत में बदल देते हैं. इसका राज छिपा है उनके पुरखों की विरासत ‘जाबो खेती प्रणाली’ में, एक ऐसी प्राचीन तकनीक जो बाढ़ को भी वरदान बना देती है.

यह प्रणाली न केवल बारिश के पानी को बचाती है, बल्कि मछली पालन, जैविक खाद, धान की खेती और पर्यावरण संरक्षण को एक साथ जोड़कर एक ऐसा टिकाऊ मॉडल बनाती है, जिसकी तारीफ दुनियाभर के वैज्ञानिक भी करते हैं.

तीन परतों वाला खेती का जादू

जाबो खेती प्रणाली, जिसे स्थानीय भाषा में ‘रूजा सिस्टम’ कहा जाता है, प्रकृति के साथ तालमेल बिठाकर बनाई गई एक पारंपरिक कृषि पद्धति है. इसमें खेतों का ढांचा तीन हिस्सों में बंटा होता है, जैसे पहाड़ी की चोटी पर घने जंगल, बीच के हिस्से में जल संग्रहण वाले तालाब और पशुओं के शेड और सबसे नीचे सीढ़ीनुमा धान के खेत. ये तीनों हिस्से मिलकर खेती, पानी और पोषण का ऐसा तंत्र बनाते हैं जो ना सिर्फ बाढ़ रोकता है, बल्कि हर बूंद को बरकत में बदल देता है.

इन जंगलों से बारिश का पानी बहकर नीचे आता है, जिसे खास नालियों के जरिए बीच वाले हिस्से के तालाबों में जमा किया जाता है. यह तालाब केवल सिंचाई के लिए नहीं, बल्कि मछली पालन के लिए भी काम आते हैं. और जब ये पानी नीचे धान के खेतों में छोड़ा जाता है, तो साथ में मवेशियों के गोबर और मूत्र से बनी जैविक खाद भी बहकर आती है, जो खेतों की उपज को और समृद्ध बना देती है.

सिंचाई, मछली पालन, खाद – सब एक साथ

जाबो प्रणाली में हर बूंद की अहमियत है. इस प्रणाली में बनाए गए तालाबों की मिट्टी को इतना मजबूती से दबाया जाता है कि पानी रिसता नहीं. धीरे-धीरे छोड़े जाने वाले पानी से खेतों को जरूरत के मुताबिक नमी मिलती है और अचानक बाढ़ आने का खतरा नहीं रहता. खास बात यह है कि इन तालाबों में मछली पालन भी किया जाता है, जिससे गांव के लोगों को पोषण और आमदनी दोनों मिलती है.

रासायनिक खाद की जरूरत ही नहीं

जाबो खेती में सिंचाई के पानी के साथ जो जैविक खाद खेतों में जाती है, वह रासायनिक खाद की आवश्यकता को पूरी तरह खत्म कर देती है. इससे न केवल खेत की उर्वरता बनी रहती है, बल्कि मिट्टी का कटाव और प्रदूषण भी रोका जाता है.

बिजली नहीं, पंप नहीं..फिर भी खेती चालू

सबसे खास बात यह है कि जाबो प्रणाली में किसी मोटर, पंप या बिजली की जरूरत नहीं होती. सब कुछ गुरुत्वाकर्षण के जरिए होता है. पहाड़ों से नीचे बहता पानी खुद-ब-खुद अपने रास्ते खेतों तक पहुंच जाता है.

दरअसल, जाबो खेती सिर्फ तकनीक नहीं, यह एक सामाजिक व्यवस्था है. गांव का हर परिवार नालियों और तालाबों की सफाई और मरम्मत में भाग लेता है. पानी, मछली, मेहनत सब कुछ साझा होता है. यही एकता इस प्रणाली की सबसे बड़ी ताकत है.

जलवायु संकट का हल है जाबो मॉडल

जब पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन से जूझ रही है, जाबो खेती बताती है कि अगर इंसान प्रकृति के साथ तालमेल बैठाए, तो बाढ़ भी वरदान बन सकती है. किक्रुमा गांव की यह सदियों पुरानी पद्धति आज के भारत को टिकाऊ खेती और जल प्रबंधन की नई दिशा दिखा रही है.

Published: 3 Jul, 2025 | 10:36 AM