अमेरिका में मशहूर है प्रतापगढ़ का आंवला, टैरिफ से कारोबार प्रभावित.. अब किसान बना रहे खेती से दूरी
प्रतापगढ़ का आंवला अपनी गुणवत्ता और जीआई टैग के लिए प्रसिद्ध है. सर्दियों में इसकी मांग बढ़ जाती है. हालांकि, महंगी मजदूरी और कम मुनाफे से आंवले की खेती घट रही है. सरकार की ओडीओपी योजना और प्रसंस्करण सब्सिडी के बावजूद किसानों को सीमित लाभ मिल पा रहा है.
Amla Farming: सर्दी की दस्तक के साथ ही मार्केट में आंवले की बिक्री शुरू हो गई है. लोग चटनी और अचार बनाने के लिए जमकर आंवले की खरीदारी कर रहे हैं. वहीं, कई राज्यों में आंवले की खेती को प्रोत्साहित भी किया जा रहा है. क्योंकि यह एक ऐसी फसल है जिसकी खेती करने पर किसानों की अच्छी कमाई होती है. अगर आप भी आंवले की खेती करना चाहते हैं, तो प्रतापगढ़ में उगाई जाने वाले आंवले की खेती कर सकते हैं. क्योंकि प्रतापगढ़ के आंवले को जीआई टैग मिला हुआ है. इसकी सप्लाई देश ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी होती है. तो आइए जानते हैं प्रतापगढ़ में उगाए जाने वाले आंवले की खासियत के बारे में.
प्रतापगढ़ का आंवला, जिसे आमलकी या भारतीय करौदा भी कहा जाता है. एक छोटा देशी पेड़ है. इसके फल का इस्तेमाल हजारों सालों से आयुर्वेदिक दवाओं और पोषण के लिए किया जा रहा है. प्रतापगढ़ इलाके में आंवले की मुख्य रूप से तीन किस्में उगाई जाती हैं. आंवला विटामिन सी का बहुत अच्छा स्रोत है और यह एसिडिटी, पाचन से जुड़ी परेशानियों और शरीर को डिटॉक्स करने में मदद करता है. यह खून को साफ करने में भी फायदेमंद होता है. अपनी इन खासियतों की वजह से आंवले को 2023 में जीआई टैग मिला, जो इसकी गुणवत्ता और पहचान की आधिकारिक मान्यता है.
आंवला के रकबे में गिरावट
हालांकि, प्रतापगढ़ के आंवला का रकबा धीरे-धीरे कम हो रहा है. अब किसान आंवले की जगह धान-गेहूं जैसी परंपरागत फसलों की खेती कर रहे हैं. महंगी मजदूरी और कम मुनाफे की वजह से किसानों ने आंवले की खेती से दूरी बना ली है. इसी कारण पिछले पांच सालों में प्रतापगढ़ जिले में आंवले की खेती का रकबा 12,000 हेक्टेयर से घटकर सिर्फ 7,000 हेक्टेयर रह गया है. देश के कुल आंवला उत्पादन में उत्तर प्रदेश का लगभग 35 से 40 फीसदी हिस्सा है, जिसमें से करीब 80 फीसदी उत्पादन अभी भी प्रतापगढ़ में होता है. यहां हर साल लगभग 3.5 लाख टन आंवला पैदा किया जाता है. इसके अलावा सुल्तानपुर, रायबरेली, फैजाबाद और एटा जिलों में भी कुछ हद तक आंवले की खेती की जाती है.
20 साल तक फल देता है यह किस्म
फैजाबाद के कुमारगंज स्थित कृषि विश्वविद्यालय ने आंवले की ऐसी अच्छी किस्में विकसित की हैं, जिनके पेड़ एक बार लगाने पर करीब 20 साल तक फल देते रहते हैं. लेकिन अब बदलते हालात के कारण कई किसान आंवले की जगह अनार, किन्नू और संतरे की खेती करने लगे हैं. कुछ किसानों ने तो आंवले के पेड़ काटकर फिर से धान और गेहूं की खेती शुरू कर दी है. हालांकि, उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने प्रतापगढ़ के आंवले को एक जिला, एक उत्पाद (ओडीओपी) योजना में शामिल किया है. इसके बाद प्रतापगढ़ का आंवला अब देशभर में अलग-अलग रूपों में पहुंच रहा है, लेकिन किसानों को इसका खास फायदा नहीं मिल पा रहा.
मुरब्बा, त्रिफला और कैंडी बनाए जाते हैं
किसानों का कहना है कि ओडीओपी के तहत कुछ लोगों ने छोटे स्तर पर मुरब्बा, त्रिफला और कैंडी बनाना शुरू किया है, लेकिन वे भी कच्चा माल किसानों से नहीं, बल्कि बिचौलियों से खरीदते हैं. उद्यान विभाग के मुताबिक, प्रधानमंत्री शुद्ध खाद्य योजना और उद्योग निधि योजना के तहत अगर कोई प्रसंस्करण यूनिट लगाता है तो उसे 30 फीसदी (अधिकतम 10 लाख रुपये) तक की सब्सिडी मिल सकती है. फिर भी, किसानों को इस योजना का लाभ नहीं मिल रहा. विभाग के अनुसार, पिछले दो साल में जिले में सिर्फ करीब 350 लोगों ने ही इन योजनाओं का फायदा उठाया है.
200 से ज्यादा छोटी-बड़ी आंवला प्रोसेसिंग इकाइयां
वहीं, अमेरिका द्वारा टैरिफ लगाए जाने का असर प्रतापगढ़ के आंवले के कारोबार पर भी पड़ा है. टैरिफ व्यवस्था लागू होने के बाद अमेरिका को आंवला उत्पादों के निर्यात में करीब 20 प्रतिशत की गिरावट आई है. इससे आंवला उद्योग से जुड़े उद्यमी काफी चिंतित हैं, क्योंकि इसका सीधा असर कारोबार और कामगारों के रोजगार पर पड़ रहा है. जिले में 200 से ज्यादा छोटी-बड़ी इकाइयां काम कर रही हैं, जहां आंवले की बर्फी, लड्डू, कैंडी, चटनी, अचार, टॉफी और मुरब्बा जैसे उत्पाद बनाए जाते हैं. हर साल लगभग 25 से 30 करोड़ रुपये का आंवला उत्पाद विदेशों में निर्यात होता है. लेकिन अब निर्यात घटने से उद्यमियों को नुकसान झेलना पड़ रहा है. अगर हालात ऐसे ही रहे, तो कई मजदूरों की नौकरियां भी जा सकती हैं और उनकी आमदनी पर सीधा असर पड़ेगा.
क्या होता है जीआई टैग
GI मतलब जियोग्राफिकल इंडिकेशन होता है, जो एक एक खास पहचान वाला लेबल होता है. यह किसी चीज को उसके इलाके से जोड़ता है. आसान भाषा में कहें तो ये GI टैग बताता है कि कोई प्रोडक्ट खास तौर पर किसी एक तय जगह से आता है और वही उसकी असली पहचान है. भारत में साल 1999 में ‘जियोग्राफिकल इंडिकेशंस ऑफ गुड्स (रजिस्ट्रेशन एंड प्रोटेक्शन) एक्ट’ लागू हुआ था. इसके तहत किसी राज्य या इलाके के खास प्रोडक्ट को कानूनी मान्यता दी जाती है. जब किसी प्रोडक्ट की पहचान और उसकी मांग देश-विदेश में बढ़ने लगती है, तो GI टैग के जरिए उसे आधिकारिक दर्जा मिल जाता है. इससे उसकी असली पहचान बनी रहती है और वह नकली प्रोडक्ट्स से सुरक्षित रहता है.
खबर से जुड़े आंकड़े
- 7,000 हेक्टेयर में होती है आंवले की खेती
- आंवला उत्पादन में यूपी की 20 फीसदी हिस्सेदारी
- हर साल 3.5 लाख टन आंवला का होता है उत्पादन
- आंवला उत्पादों के निर्यात में 20 फीसदी की गिरावट
- हर साल 30 करोड़ रुपये का होता है अमेरिका को निर्यात
- साल 2023 में मिला जीआई टैग