Jackfruit farming: भारत में खेती अब केवल परंपरागत फसलों तक सीमित नहीं रही है. बदलते बाजार, बढ़ती पोषण संबंधी जागरूकता और शाकाहारी विकल्पों की बढ़ती मांग ने कई ऐसी फसलों को नई पहचान दी है, जो पहले सिर्फ घरेलू उपयोग तक सीमित थीं. इन्हीं में से एक है कटहल, जिसे आज “वेजिटेरियन मीट” भी कहा जाने लगा है. कटहल की खेती कम खर्च में शुरू होती है, देखभाल आसान है और बाजार में इसकी मांग लगातार बढ़ रही है. यही वजह है कि अब किसान इसे एक फायदे वाले व्यावसायिक विकल्प के तौर पर देख रहे हैं.
कटहल की खास पहचान
कटहल की सबसे बड़ी खासियत यही है कि इसे फल और सब्जी दोनों रूपों में इस्तेमाल किया जाता है. कच्चे कटहल की सब्जी देश के कई हिस्सों में बेहद लोकप्रिय है, वहीं पका कटहल मीठे फल के रूप में खाया जाता है. आजकल कटहल से चिप्स, अचार, कबाब और रेडी-टू-कुक उत्पाद भी बनाए जा रहे हैं, जिससे इसकी मांग शहरी बाजारों तक पहुंच चुकी है.
पोषण के लिहाज से भी कटहल बेहद समृद्ध है. इसमें आयरन, कैल्शियम, पोटैशियम, फाइबर के साथ-साथ विटामिन ए और विटामिन सी भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं. यही कारण है कि स्वास्थ्य के प्रति जागरूक लोग भी कटहल को अपने भोजन में शामिल कर रहे हैं.
देशभर में फैलती कटहल की खेती
पहले कटहल की खेती मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और दक्षिण भारत के राज्यों तक सीमित थी. लेकिन अब जलवायु अनुकूलता और बेहतर किस्मों की उपलब्धता के कारण इसकी खेती लगभग पूरे देश में होने लगी है. बरसात का मौसम कटहल के पौधों के लिए सबसे अनुकूल माना जाता है, जिससे इसकी खेती और भी आसान हो जाती है.
कटहल की बुवाई का सही समय और तरीका
कटहल की खेती के लिए जून और जुलाई का महीना सबसे उपयुक्त माना जाता है. इस समय मानसून सक्रिय रहता है, जिससे सिंचाई पर अतिरिक्त खर्च नहीं आता. खेत में पौधों को पर्याप्त जगह देना जरूरी होता है, क्योंकि कटहल का पेड़ बड़ा और फैलाव वाला होता है.
एक हेक्टेयर भूमि में लगभग 150 पौधे लगाए जा सकते हैं. पौधे से पौधे और कतार से कतार की दूरी करीब 35 से 40 फीट रखी जाती है. किसान चाहें तो कटहल की एकल खेती कर सकते हैं या फिर मिश्रित खेती अपनाकर अतिरिक्त आमदनी भी ले सकते हैं.
जैविक तरीके से खेत की तैयारी
कटहल की खेती के लिए खेत को जैविक विधि से तैयार करना ज्यादा लाभदायक माना जाता है. मिट्टी की गहरी जुताई कर उसे भुरभुरा बनाया जाता है. तय दूरी पर गड्ढे खोदकर उनमें सड़ी हुई गोबर की खाद, जैविक उर्वरक और नीम की खली मिलाई जाती है. इससे मिट्टी की उर्वरता बढ़ती है और पौधों को शुरुआती अवस्था में रोगों से सुरक्षा मिलती है.
गड्ढे तैयार करने के करीब 15 दिन बाद पौधों की रोपाई कर दी जाती है और हल्की सिंचाई की जाती है. अगर बीज से पौधे लगाए जाएं तो फल आने में 5 से 6 साल लग सकते हैं, जबकि गुटी या कलमी विधि से लगाए गए पौधे 3 से 4 साल में ही फल देने लगते हैं.
देखभाल और सिंचाई की जरूरत
कटहल की फसल ज्यादा पानी मांगने वाली नहीं होती, लेकिन नमी बनाए रखना जरूरी है. सामान्य तौर पर 15 से 20 दिन के अंतराल पर सिंचाई पर्याप्त रहती है. पौधों के आसपास निराई-गुड़ाई करते रहना चाहिए, जिससे खरपतवार न पनपें और पोषक तत्वों का पूरा लाभ पौधों को मिले.
बड़े स्तर पर खेती करने वाले किसानों के लिए हर दो साल में हल्की जुताई करना फायदेमंद रहता है, जिससे मिट्टी की सेहत बनी रहती है.
उत्पादन और कमाई का गणित
कटहल का पेड़ रोपाई के तीन से चार साल बाद फल देना शुरू कर देता है और करीब 10 से 12 साल तक अच्छी पैदावार देता है. एक पौधे से सालाना 500 से 1000 किलोग्राम तक फल मिल सकता है, जो किस्म और देखभाल पर निर्भर करता है.
एक हेक्टेयर में कटहल की खेती पर शुरुआती खर्च करीब 40 हजार रुपये तक आता है. जब पौधे पूरी तरह उत्पादन देने लगते हैं, तो एक साल में 3 से 4 लाख रुपये तक की आमदनी आसानी से की जा सकती है. जैसे-जैसे पेड़ बड़े होते हैं और उत्पादन बढ़ता है, मुनाफा भी लगातार बढ़ता जाता है.