क्या नीम के पेड़ हो जाएंगे खत्म? फंगल संक्रमण से हजारों पेड़ों पर संकट

यह पहली बार नहीं है जब नीम के पेड़ इस तरह के संकट में आए हों. इससे पहले उत्तर भारत और दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में भी डाइबैक रोग का असर देखा गया था. विशेषज्ञों का कहना है कि यह रोग लगभग दस साल के चक्र में उभरता है और फिर धीरे-धीरे कम हो जाता है.

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नई दिल्ली | Published: 26 Dec, 2025 | 12:11 PM
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Neem tree disease: नीम का पेड़ भारतीय जीवन और संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहा है. आयुर्वेद से लेकर गांवों की रोजमर्रा की जिंदगी तक, नीम को औषधीय गुणों और प्राकृतिक सुरक्षा कवच के रूप में जाना जाता है. लेकिन अब यही नीम के पेड़ खुद गंभीर संकट में फंसते नजर आ रहे हैं. खासतौर पर तेलंगाना में नीम के पेड़ों पर फैल रहा एक खतरनाक फंगल संक्रमण वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों के लिए चिंता का विषय बन गया है. हालात ऐसे हैं कि कई इलाकों में सड़कों के किनारे, खेतों की मेड़ों और गांवों के बीच खड़े नीम के पेड़ धीरे-धीरे सूखते दिखाई दे रहे हैं.

क्या है डाइबैक रोग और क्यों बन रहा है खतरा

नीम के पेड़ों को प्रभावित करने वाले इस रोग को ‘डाइबैक’ कहा जाता है. यह बीमारी पेड़ की ऊपरी शाखाओं से शुरू होती है और धीरे-धीरे नीचे की ओर बढ़ती चली जाती है. शुरुआत में पत्तियां पीली पड़ने लगती हैं, फिर टहनियां सूखने लगती हैं और अंत में पूरा पेड़ कमजोर हो जाता है. इस संक्रमण की वजह से पेड़ के भीतर पोषण और पानी का संचार बाधित हो जाता है, जिससे उसका विकास रुक जाता है.

वैज्ञानिकों के अनुसार इस रोग का कारण एक विशेष प्रकार का फंगस है, जो नमी और अनुकूल मौसम में तेजी से फैलता है. हालिया अध्ययनों में यह सामने आया है कि तेलंगाना में बड़ी संख्या में नीम के पेड़ इसकी चपेट में आ चुके हैं, जिससे हरियाली और जैव विविधता पर सीधा असर पड़ रहा है.

बारिश और नमी ने बढ़ाई समस्या

बीते कुछ सालों में मानसून का स्वरूप बदला है. लंबे समय तक लगातार बारिश और वातावरण में बनी अत्यधिक नमी ने इस फंगस के लिए अनुकूल परिस्थितियां तैयार कर दी हैं. विशेषज्ञ मानते हैं कि जून से अक्टूबर के बीच हुई असामान्य बारिश ने संक्रमण को और तेज कर दिया. यही वजह है कि शहरों के साथ-साथ ग्रामीण इलाकों में भी नीम के पेड़ तेजी से प्रभावित हो रहे हैं.

युवा पौधों पर ज्यादा खतरा

इस फंगल संक्रमण का सबसे ज्यादा असर कम उम्र के नीम के पौधों पर देखा जा रहा है. एक से दो साल के पौधे इस रोग को झेल नहीं पा रहे हैं और कई मामलों में पूरी तरह सूख जा रहे हैं. हालांकि राहत की बात यह है कि बड़े और पुराने नीम के पेड़ अपेक्षाकृत मजबूत हैं और उनमें से कई समय के साथ खुद ही उबर जाते हैं. फिर भी, युवा पौधों का इस तरह खत्म होना भविष्य के लिए बड़ा खतरा माना जा रहा है.

क्या इंसानों के लिए सुरक्षित है नीम?

इस बीमारी को लेकर लोगों के मन में कई सवाल हैं, खासतौर पर नीम के पत्तों और उससे बने घरेलू या औषधीय उपयोग को लेकर. विशेषज्ञ साफ तौर पर कहते हैं कि यह फंगल संक्रमण केवल नीम के पेड़ों तक सीमित है और इससे इंसानों को कोई सीधा स्वास्थ्य खतरा नहीं है. नीम की पत्तियां, छाल और बीज पहले की तरह सुरक्षित माने जा रहे हैं.

रसायनों से नहीं, प्राकृतिक उपायों से उम्मीद

नीम के इस संकट से निपटने के लिए रासायनिक कीटनाशकों को कारगर नहीं माना जा रहा है. कई अध्ययनों में यह सामने आया है कि तेज रसायन इस फंगस पर खास असर नहीं दिखाते. इसके बजाय प्राकृतिक तरीकों को ज्यादा प्रभावी माना जा रहा है. संक्रमित टहनियों की समय पर छंटाई करने से बीमारी के फैलाव को रोका जा सकता है. इसके साथ ही कुछ पौधों के प्राकृतिक लेप और घरेलू जैविक घोल भी संक्रमण को नियंत्रित करने में मददगार साबित हो रहे हैं.

पहले भी दिख चुका है ऐसा खतरा

यह पहली बार नहीं है जब नीम के पेड़ इस तरह के संकट में आए हों. इससे पहले उत्तर भारत और दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में भी डाइबैक रोग का असर देखा गया था. विशेषज्ञों का कहना है कि यह रोग लगभग दस साल के चक्र में उभरता है और फिर धीरे-धीरे कम हो जाता है. मौजूदा हालात को देखते हुए अनुमान लगाया जा रहा है कि तेलंगाना और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में भी इसका असर कुछ वर्षों तक बना रह सकता है.

पर्यावरण के लिए चेतावनी

नीम के पेड़ों पर मंडराता यह खतरा सिर्फ एक पेड़ तक सीमित नहीं है. यह पूरे पारिस्थितिकी तंत्र के लिए चेतावनी है. नीम हवा को शुद्ध करने, मिट्टी की गुणवत्ता सुधारने और जैव विविधता बनाए रखने में अहम भूमिका निभाता है. ऐसे में इसका कमजोर होना पर्यावरण संतुलन को प्रभावित कर सकता है.

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