Stubble Burning: दिल्ली-एनसीआर की हवा में जहरीली धुंध फैलाने वाली पराली जलाने की समस्या को अक्सर किसानों की लापरवाही या जिद के तौर पर देखा जाता है. सुप्रीम कोर्ट ने कई बार कहा है कि इस कुप्रथा को रोकने के लिए किसानों को कड़ी सजा दी जानी चाहिए. लेकिन इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट (IIM) अमृतसर की हालिया स्टडी इस धारणा को पूरी तरह बदलती है. अध्ययन में साफ कहा गया है कि पराली जलाना किसानों की मनमानी नहीं है, बल्कि यह कृषि नीतियों, न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP), सरकारी खरीद और कमजोर बाजार व्यवस्था की विफलता का नतीजा है.
क्या कहती है रिपोर्ट?
‘Governmentality and Marketing System Failure: The Case of Stubble Burning and Climate Change in Neoliberal India’ नामक इस शोध को प्रोफेसर सुजीत रघुनाथराव जगदाले और डॉ. जावेद एम शेख ने 2022 से 2024 के बीच किया. यह स्टडी अमेरिकी जर्नल ऑफ मैक्रोमार्केटिंग में प्रकाशित हुई. इसमें पंजाब के अमृतसर, तरन तारन और गुरदासपुर जिलों के किसानों, आढ़तियों और स्थानीय अधिकारियों के इंटरव्यू शामिल हैं. शोध के अनुसार पराली जलाना केवल पर्यावरणीय उल्लंघन नहीं है बल्कि यह किसानों के लिए मजबूरी है.
MSP और सरकारी खरीद ने बढ़ाई मजबूरी
रिपोर्ट बताती है कि पंजाब और हरियाणा के किसान MSP और सरकारी खरीद की व्यवस्था के कारण गेहूं और धान के चक्र में फंसे हुए हैं. सरकार गेहूं और धान की ही निश्चित कीमत पर खरीद करती है, जिससे किसान अन्य फसलों की ओर रुख नहीं कर पाते. धान की कटाई के बाद अगले कुछ ही दिनों में खेत खाली करना होता है, इसलिए किसान पराली जलाने के सस्ते और त्वरित विकल्प का सहारा लेते हैं. वैकल्पिक उपाय जैसे पराली से चारा बनाना, पेलेट तैयार करना या बायोफ्यूल बनाना महंगे और समय लेने वाले होते हैं.
छोटी जोत और बढ़ता कर्ज
अध्ययन में पाया गया कि छोटे और सीमांत किसान (5 एकड़ तक की जमीन वाले) सबसे ज्यादा प्रभावित हैं. उनके पास महंगी मशीनें खरीदने या किराए पर लेने की क्षमता नहीं होती. लगातार बढ़ता कर्ज, ऊंची ब्याज दरों पर आढ़तियों से उधारी और खेती के बढ़ते खर्च उन्हें पराली जलाने जैसे सस्ते विकल्प अपनाने पर मजबूर करते हैं.
आढ़तियों की भूमिका
रिपोर्ट ने मंडी व्यवस्था की खामियों को भी उजागर किया. आढ़ती न केवल किसानों की फसल बेचते हैं बल्कि उन्हें अनौपचारिक रूप से कर्ज भी देते हैं. कई बार ऊंची ब्याज दरों पर मिलने वाला कर्ज किसानों को और गहरे कर्ज के जाल में धकेल देता है. इस स्थिति में किसान नए विकल्प अपनाने में असमर्थ रहते हैं और पराली जलाना उनकी मजबूरी बन जाती है.
पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभाव
पराली जलाने से न सिर्फ हवा प्रदूषित होती है बल्कि स्वास्थ्य और कृषि पर भी नकारात्मक असर पड़ता है. रिपोर्ट के अनुसार भारत में करीब 25 फीसदी फसल अवशेष जलाए जाते हैं, जिससे ब्लैक कार्बन और ग्रीनहाउस गैसें वातावरण में जाती हैं. दिल्ली और आसपास के शहरों में श्वसन संबंधी बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है.
समाधान के सुझाव
अध्ययन में बहु-स्तरीय सुधारों की जरूरत बताई गई है. सुझावों में शामिल हैं:
- पराली से चारा, बायोफ्यूल, पैकेजिंग और टेक्सटाइल्स बनाने के लिए उद्योग को प्रोत्साहित करना.
- पराली की खरीद के लिए तय कीमत और सब्सिडी वाली मशीनों की उपलब्धता.
- किसानों को पराली ढोने के लिए नकद सहायता और मोबाइल ऐप के जरिए सीधे स्टबल खरीदारों से जोड़ना.
- फसल विविधिकरण को बढ़ावा देना और किसानों को वित्तीय सुरक्षा प्रदान करना.
- कम लागत वाले उपकरणों और प्रशिक्षण के माध्यम से पर्यावरणीय विकल्प अपनाने में मदद.