Aravalli Supreme Court verdict: अरबों साल पहले जब धरती पर जीवन की शुरुआत हो रही थी, तब भी अरावली पर्वतमाला अपने सीने पर हरियाली और पानी को संभाले खड़ी थी. समय बदला, सभ्यताएं बदलीं, लेकिन अरावली का काम नहीं बदला. इसने थार के रेगिस्तान को आगे बढ़ने से रोका, उत्तर भारत को पानी दिया, खेतों को उपजाऊ बनाए रखा और हवा को सांस लेने लायक बनाए रखा. आज वही अरावली एक बार फिर चर्चा में है, लेकिन वजह खुशी की नहीं, बल्कि चिंता की है. सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले ने अरावली को लेकर एक ऐसा सवाल खड़ा कर दिया है, जो सीधे पर्यावरण, खेती और आने वाली पीढ़ियों के भविष्य से जुड़ा है.
अरावली क्यों है उत्तर भारत की जीवनरेखा
अरावली सिर्फ पहाड़ों की एक कतार नहीं है. यह राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली और गुजरात तक फैली एक प्राकृतिक ढाल है. बारिश का पानी इन्हीं पहाड़ियों में रुकता है, जमीन के भीतर समाता है और भूजल को भरता है. इसी वजह से अरावली के आसपास के इलाकों में कुएं, बावड़ियां और हैंडपंप सालों तक पानी देते रहे हैं. खेतों की सिंचाई, पशुपालन और ग्रामीण जीवन की रीढ़ अरावली से निकलने वाले इसी पानी पर टिकी रही है. अगर यह पर्वतमाला कमजोर पड़ती है, तो सबसे पहला असर किसानों पर पड़ेगा.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले से क्यों बढ़ी चिंता
नवंबर 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने अरावली पहाड़ियों की एक नई परिभाषा को स्वीकार किया. इस नई परिभाषा के अनुसार अब सिर्फ वही पहाड़ “अरावली” माने जाएंगे, जिनकी ऊंचाई आसपास के इलाके से 100 मीटर या उससे ज्यादा है. पहली नजर में यह तकनीकी फैसला लग सकता है, लेकिन इसके असर बहुत गहरे हैं. इस परिभाषा के चलते अरावली का करीब 90 प्रतिशत हिस्सा कानूनी सुरक्षा से बाहर हो सकता है. पर्यावरणविदों का कहना है कि यह फैसला अरावली के लिए एक तरह का “डेथ वारंट” है.
90 प्रतिशत अरावली क्यों खतरे में है
सरकारी आंकड़ों के अनुसार राजस्थान में चिन्हित 12 हजार से ज्यादा अरावली पहाड़ियों में से सिर्फ करीब 1,000 ही इस नई परिभाषा पर खरी उतरती हैं. बाकी पहाड़ ऊंचाई में भले छोटे हों, लेकिन उनका पर्यावरणीय महत्व बहुत बड़ा है. यही निचली पहाड़ियां बारिश के पानी को रोकती हैं, मिट्टी को बहने से बचाती हैं और खेती योग्य जमीन को मरुस्थल बनने से रोकती हैं. अगर इन इलाकों को खनन और निर्माण के लिए खोल दिया गया, तो जमीन के नीचे का पानी तेजी से खत्म होगा.
खेती और पानी पर सीधा असर
अरावली का कमजोर होना सिर्फ जंगल या जानवरों की समस्या नहीं है. इसका सीधा असर खेतों पर पड़ेगा. भूजल स्तर गिरते ही किसानों को सिंचाई के लिए ज्यादा खर्च करना पड़ेगा. बोरवेल और गहरे करने पड़ेंगे, डीजल और बिजली का खर्च बढ़ेगा. कई इलाकों में खेती करना ही मुश्किल हो सकता है. विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि अगर अरावली के निचले हिस्सों में खनन बढ़ा, तो राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली-एनसीआर के एक्विफर यानी भूमिगत जल भंडार भी दूषित हो सकते हैं.
रेगिस्तान का खतरा और बढ़ेगा
अरावली थार रेगिस्तान को रोकने वाली आखिरी बड़ी प्राकृतिक दीवार है. अगर यह दीवार कमजोर पड़ी, तो रेगिस्तान का फैलाव तेज हो सकता है. इसका मतलब है कि आज जो जमीन खेती योग्य है, वह धीरे-धीरे बंजर बन सकती है. धूल भरी आंधियां बढ़ेंगी, मिट्टी की नमी खत्म होगी और फसलों की पैदावार घटेगी. यह असर सिर्फ एक राज्य तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि पूरे उत्तर भारत को प्रभावित करेगा.
वन्यजीव और इंसान का बढ़ता टकराव
अरावली के जंगल कई वन्यजीवों का घर हैं. जब पहाड़ काटे जाते हैं और जंगल उजाड़े जाते हैं, तो जानवरों का प्राकृतिक आवास खत्म होता है. नतीजा यह होता है कि जानवर गांवों और खेतों की ओर बढ़ते हैं. इससे मानव–वन्यजीव संघर्ष बढ़ता है, फसलें बर्बाद होती हैं और ग्रामीण इलाकों में डर का माहौल बनता है.
विकास बनाम विनाश की बहस
सरकार का तर्क है कि नई परिभाषा से प्रशासनिक स्पष्टता आएगी और विकास योजनाएं आसान होंगी. लेकिन सवाल यह है कि क्या विकास की कीमत प्रकृति और खेती की बलि देकर चुकाई जानी चाहिए? पर्यावरणविदों का कहना है कि असली विकास वही है, जो पानी, जंगल और जमीन को बचाकर चले. अगर आज अरावली को कमजोर किया गया, तो आने वाले सालों में इसकी भरपाई करना नामुमकिन होगा.
क्या अभी भी बचाई जा सकती है अरावली
विशेषज्ञ मानते हैं कि अभी भी समय है. नीतियों में सुधार, खनन पर सख्ती और स्थानीय समुदायों की भागीदारी से अरावली को बचाया जा सकता है. किसानों और ग्रामीणों को यह समझना होगा कि यह लड़ाई सिर्फ पहाड़ों की नहीं, बल्कि उनके खेत, पानी और भविष्य की है. अरावली अगर सुरक्षित रही, तो खेती भी बचेगी और पर्यावरण भी. अगर नहीं, तो नुकसान ऐसा होगा, जिसकी कीमत कई पीढ़ियों तक चुकानी पड़ेगी.