Barley cultivation: पंजाब, हरियाणा और मध्य प्रदेश सहित कई राज्यों में गेहूं की बुवाई अंतिम चरण में है. लेकिन कैसे ऐसे राज्य हैं, जहां पर अभी रबी फसलों की बुवाई शुरू ही हुई है. अगर आप किसान हैं और जौ की बुवाई करने के लिए प्लानिंग बना रहे हैं, तो यह समय आपके लिए बहुत ही अच्छा है. क्योंकि नवंबर के पहले पहले पखवाड़े से दिसंबर के मध्य तक का समय जौ बुवाई के लिए बहुत ही अनुकूल होता है. इस समय बुवाई करने पर फसलों की पैदावार अच्छी होती है. साथ ही फसल की गुणवत्ता भी बेहतर रहती है.
कृषि एक्सपर्ट के मुताबिक, किसान आधुनिक और वैज्ञानिक विधि से जौ की खेती करते हैं, तो गेहूं के मुकाबले ज्यादा फायदा होगा. लेकिन इसके बावजूद मौजूदा वक्त में किसान जौ की खेती से दूरी बना रहे हैं. जबकि यह बहुत ही प्राचीन और भारतीय फसल है, जिसमें कई सारे पोषक तत्व पाए जाते हैं. इसका उपयोग पूजा-पाठ में भी किया जाता है. इसलिए इसकी खेती करना किसानों के लिए लाभदायक रहेगा. लेकिन बीज की बुवाई करने से पहले खेत को अच्छी तरह से तैयार करना चाहिए.
जौ की खास उन्नत किस्में
अगर आप जौ की बुवाई करना चाहते हैं, तो सबसे पहले खेत की अच्छी जुताई करें, ताकि मिट्टी भुरभुरी हो जाए. फिर नमी बनाए रखने के लिए एक-दो बार हल चलाकर पाटा लगाएं. जौ की बुवाई के लिए आरडी-2715, आरडी-2660, आरडी-2794, आरडी-2624, आरडी-2592, आरडी-2786, आरडी-2849, आरडी-2552 और आरडी-2907 जैसी उन्नत किस्में सबसे उपयुक्त मानी जाती हैं.
हालांकि, किसानों को बुवाई करने से पहले बीजों का उपचार भी करना चाहिए, ताकि फसल में रोग नहीं लगे. यानी बीज को रोगों से बचाने के लिए किसान फिप्रोनिल 5 एससी (6 मिली प्रति किलो बीज) से उपचारित कर सकते हैं. वहीं, ढीले स्मट रोग से बचाव के लिए मैनकोजेब (2.5 ग्राम) या थीरम (3 ग्राम प्रति किलो बीज) का उपयोग करें.
इस तरह करें बीज का उपचार
कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक, जौ की खेती में प्रति बीघा 20 से 25 किलो नाइट्रोजन और 15 किलो फास्फोरस डालना ज्यादा अच्छा रहेगा. अगर खेत में नमी पर्याप्त हो तो सारी खाद बुवाई के समय डाल सकते हैं. अगर आप चाहें, तो नाइट्रोजन का आधा भाग पहली सिंचाई के साथ देना चाहिए. जौ एक कम पानी वाली फसल है, इसलिए दो से तीन सिंचाइयां ही पर्याप्त रहती हैं. पहली बुवाई के 25 दिन बाद और दूसरी बालियां निकलने के समय करनी चाहिए. खास बात यह है कि गेहूं के मुकाबले इसकी खेती 30 फीसदी सस्ती पड़ती है और इसकी हमेशा बाजार में मांग रहती है. इसका उपयोग पशु आहार और दलिया बनाने में किया जाता है, जिससे किसानों को आसानी से खरीदार मिल जाते हैं. एक बीघा में औसतन 8 से 10 क्विंटल तक उत्पादन प्राप्त होता है.