दुनिया में चावल का बादशाह बना भारत, लेकिन पंजाब-हरियाणा में तेजी से नीचे जा रहा भूजल

विशेषज्ञ मानते हैं कि समस्या सिर्फ मौसम या बारिश की नहीं है, बल्कि नीतियों की भी है. सरकार की ओर से चावल पर मिलने वाला न्यूनतम समर्थन मूल्य और बिजली पर भारी सब्सिडी किसानों को चावल उगाने के लिए प्रेरित करती है. इससे किसान दूसरी कम पानी वाली फसलों की ओर जाने से हिचकते हैं.

Kisan India
नई दिल्ली | Published: 30 Dec, 2025 | 09:39 AM
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साल 2025 भारत के लिए चावल उत्पादन और निर्यात के लिहाज से ऐतिहासिक रहा. भारत ने इस साल चीन को पीछे छोड़ते हुए दुनिया का सबसे बड़ा चावल उत्पादक और निर्यातक देश बनने का गौरव हासिल किया. सरकार और कृषि नीति से जुड़े लोग इसे किसानों की मेहनत और नीतियों की सफलता बता रहे हैं. लेकिन इसी सफलता के पीछे एक गंभीर सच्चाई भी छिपी है, जो खासकर उत्तर भारत के खेतों में किसानों की चिंता बढ़ा रही है. यह सच्चाई है तेजी से नीचे जाता भूजल स्तर, जो आने वाले समय में खेती के लिए बड़ा संकट बन सकता है.

चावल की बढ़ती खेती और पानी पर दबाव

बीते दस वर्षों में भारत ने चावल के निर्यात को लगभग दोगुना कर दिया है. हाल के वर्षों में देश से 20 मिलियन टन से ज्यादा चावल विदेशों में भेजा जा रहा है. लेकिन चावल एक ऐसी फसल है, जिसे बहुत ज्यादा पानी की जरूरत होती है. कृषि विशेषज्ञों के मुताबिक सिर्फ एक किलो चावल पैदा करने में 3,000 से 4,000 लीटर तक पानी खर्च हो जाता है. यह वैश्विक औसत से कहीं ज्यादा है. इसका सीधा असर उन राज्यों पर पड़ रहा है, जहां चावल बड़े पैमाने पर उगाया जाता है.

पंजाब और हरियाणा में गहराता संकट

बिजनेस लाइन की खबर के अनुसार, देश के प्रमुख चावल उत्पादक राज्यों पंजाब और हरियाणा में स्थिति सबसे ज्यादा चिंताजनक है. किसानों का कहना है कि करीब दस साल पहले भूजल 25 से 30 फीट की गहराई पर मिल जाता था, लेकिन अब हालात तेजी से बदल चुके हैं. कई इलाकों में पानी 80 फीट से लेकर 200 फीट तक नीचे चला गया है. इसका मतलब यह है कि हर साल किसानों को और गहरे बोरवेल खोदने पड़ रहे हैं, जिससे लागत लगातार बढ़ रही है.

बढ़ती लागत से टूटता किसान का हौसला

हरियाणा के एक किसान का कहना है कि पहले जहां एक मोटर और छोटी पाइप से काम चल जाता था, अब ज्यादा ताकतवर पंप और लंबी पाइप लगानी पड़ती है. इसके लिए हर सीजन हजारों रुपये खर्च करने पड़ते हैं. पंजाब के कई किसानों ने बताया कि सिर्फ पानी निकालने के लिए उन्हें 30 से 40 हजार रुपये तक अतिरिक्त खर्च करना पड़ रहा है. बड़े किसान किसी तरह यह खर्च उठा लेते हैं, लेकिन छोटे और सीमांत किसानों के लिए यह बोझ असहनीय होता जा रहा है.

सब्सिडी ने बनाया दुष्चक्र

विशेषज्ञ मानते हैं कि समस्या सिर्फ मौसम या बारिश की नहीं है, बल्कि नीतियों की भी है. सरकार की ओर से चावल पर मिलने वाला न्यूनतम समर्थन मूल्य और बिजली पर भारी सब्सिडी किसानों को चावल उगाने के लिए प्रेरित करती है. इससे किसान दूसरी कम पानी वाली फसलों की ओर जाने से हिचकते हैं. नतीजा यह होता है कि देश पहले से ही पानी की कमी झेल रहा है, फिर भी भूजल का बड़े पैमाने पर दोहन हो रहा है.

मानसून के बावजूद नहीं भर पा रहे जलस्तर

भले ही पिछले दो वर्षों में मानसून अच्छा रहा हो, लेकिन हालात में ज्यादा सुधार नहीं दिखा. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक पंजाब और हरियाणा में हर साल भूजल का दोहन उसकी प्राकृतिक भरपाई से 35 से 57 प्रतिशत ज्यादा हो रहा है. इसी वजह से कई इलाकों को ‘अत्यधिक दोहन’ और ‘गंभीर स्थिति’ वाले क्षेत्रों में रखा गया है. हालात संभालने के लिए कुछ जगहों पर नए बोरवेल पर रोक भी लगाई गई है.

क्या बदल सकती है खेती की दिशा?

सरकार अब इस दुष्चक्र से बाहर निकलने के रास्ते तलाश रही है. हरियाणा में कुछ समय के लिए किसानों को कम पानी वाली फसलों, जैसे मोटे अनाज और मिलेट्स, की ओर जाने के लिए प्रोत्साहन दिया गया. शहरों में मिलेट्स को सेहत के लिए बेहतर विकल्प के रूप में अपनाया भी जा रहा है. हालांकि विशेषज्ञों का मानना है कि एक-दो साल की मदद से किसान फसल बदलने का जोखिम नहीं लेते. इसके लिए लंबे समय तक भरोसेमंद नीति और खरीद की गारंटी जरूरी है.

भविष्य के लिए चेतावनी

कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि अगर समय रहते ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो चावल की आज की सफलता कल बड़े संकट में बदल सकती है. भारत दुनिया के चावल बाजार में अहम भूमिका निभाता है, इसलिए उत्पादन में किसी भी तरह का बड़ा बदलाव वैश्विक स्तर पर असर डाल सकता है. लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी है देश के किसानों और जल संसाधनों की सुरक्षा.

किसान खुद कहते हैं कि वे बदलाव के लिए तैयार हैं, बस उन्हें भरोसा चाहिए कि अगर वे कम पानी वाली फसल उगाएंगे, तो सरकार उनकी उपज खरीदेगी और आमदनी सुरक्षित रहेगी. आज जरूरत इस बात की है कि चावल की चमक के साथ-साथ खेतों के नीचे छिपते पानी को भी उतनी ही गंभीरता से देखा जाए, वरना यह संकट आने वाली पीढ़ियों के लिए और गहरा हो सकता है.

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