कम समय में अच्छी पैदावार और अधिक मुनाफा, किसानों के लिए एक बेस्ट ऑप्शन बना जी-9 केला

जी-9 केला एक लोकप्रिय और लाभदायक फसल है जो कम समय में अच्छी पैदावार और अधिक मुनाफा प्रदान करती है. इसकी खेती में टिशू कल्चर तकनीक और ड्रिप इरिगेशन का उपयोग करके पानी की बचत और उपज बढ़ाई जा सकती है.

नोएडा | Published: 7 Jun, 2025 | 02:44 PM

खेती-किसानी में अब नए जमाने की तकनीक का खूब इस्तेमाल हो रहा है. भारत में केला एक ऐसी फसल है जो सालभर बाजारों में अपनी मांग को लेकर बनी रहती हैं. खासतौर पर जी-9 किस्म का केला इन दिनों किसानों के बीच बेहद पसंदीदा हो गया है. केले की यह किस्म उन किसानों के लिए एक बेस्ट ऑप्शन है जो कम समय में अच्छी पैदावार और अधिक मुनाफा कमाना चाहते हैं. यह स्वाद, पोषण और कम समय में अच्छी पैदावार के चलते देश के कई राज्यों में बड़े पैमाने पर इसकी खेती की जाती हैं. जी-9 केले को टिशू कल्चर तकनीक से तैयार किया जाता है, जिससे ये पौधे बीमारी रहित और एक जैसी गुणवत्ता वाले होते हैं.

210 से 240 केले एक गुच्छे में

जी-9 केले के पौधे की ऊंचाई करीब 6.5 से 7.5 फीट होती है और पौधे को लगाने के 11 से 12 महीने में फल तैयार हो जाते हैं. एक गुच्छे में 210 से 240 तक केले होते हैं, जिनका वजन 40 से 50 किलो तक हो सकता है. यही कारण है कि इसकी खेती किसानों के लिए आर्थिक रूप से फायदेमंद साबित हो रही है.

इसकी एक और खास बात यह है कि इसकी लंबाई करीब 9-10 इंच होती है और एक पौधा औसतन 45 किलो तक फल दे सकता है. इसकी खेती में ड्रिप इरिगेशन तकनीक अपनाने से पानी की बचत होती है और उपज भी 30 प्रतिशत तक बढ़ाई जा सकती है. यह केला न केवल देश में खाया जाता है बल्कि एक्सपोर्ट के लिए भी उपयुक्त माना जाता है.

खेती से पहले की तैयारी

केले के इस किस्म की खेती के लिए अच्छी जलनिकासी वाली मिट्टी सबसे जरूरी है. मिट्टी का पीएच 6 से 7.5 के बीच होना चाहिए. इसके अलावा, केला गर्म जलवायु में अच्छी तरह बढ़ता है, जहां तापमान 15°C से 35°C के बीच का होता हो और आर्द्रता 75 फीसदी से 85 फीसदी तक की हो. देश के कई राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, गुजरात, आंध्र प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में इसकी खेती की जाती है. वहीं अगर हम बात करें इसकी खेती की तो पहले खेत में हरी खाद (जैसे सनई, ढैंचा) डालकर जमीन को तैयार किया जाता है. खेत की दो से चार बार जुताई कर मिट्टी को भुरभुरी बनाया जाता है. इसके बाद गड्ढे बनाकर उनमें गोबर खाद, नीम की खली और कार्बोफ्यूरन मिलाया जाता है ताकि मिट्टी में कीट और रोग न पनपें.

खेत में 6×6 फीट की दूरी पर लगाएं

पारंपरिक तरीके में सॉकर पौधों के बजाय अब टिशू कल्चर से तैयार पौधे लगाने की सलाह दी जाती है. ये पौधे एक समान, स्वस्थ हो और बीमारियों से दूर रखने में मदद करते हैं. इन्हें तैयार कर खेत में 6×6 फीट की दूरी पर लगाया जाता है.

सिंचाई और उर्वरक प्रबंधन

केले की फसल को भरपूर पानी की जरूरत होती है लेकिन जड़ें गहराई से पानी नहीं ले पातीं, इसलिए ड्रिप इरिगेशन सबसे बेहतर ऑप्शन होता है. फसल को बढ़िया पोषण देने के लिए गोबर खाद के साथ-साथ नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटाश का संतुलित उपयोग भी जरूरी है.

कटाई और देखभाल

जी-9 केले की कटाई फूल आने के 90 से 150 दिनों के भीतर की जाती है. गुच्छों को धूप से दूर रखा जाता है ताकि पकने की प्रक्रिया धीमी हो.

रोग प्रबंधन और अतिरिक्त आय

केले की फसल में रोगों से बचाव के लिए रोगमुक्त पौधे लगाना, संक्रमित पौधों को हटाना और खेत की साफ-सफाई जरूरी है. इसके साथ ही, खेत में प्याज, मूंग, उड़द जैसी फसलें भी उगाई जा सकती हैं जो अतिरिक्त आय का जरिया बनती हैं और खरपतवार को भी रोकती हैं.

क्या हैं टिशू कल्चर तकनीक

टिशू कल्चर तकनीक (Tissue Culture Technique) एक आधुनिक खेती की विधि है जिसमें किसी भी पौधे के एक छोटे से हिस्से (जैसे – पत्ती, तना या जड़ का टुकड़ा) को लैब में साफ-सुथरे, बबीमारियों से दूर खास पोषक द्रव्य (मीडियम) पर उगाया जाता है. इसमें एक ही पौधे से हजारों पौधे तैयार किए जा सकते हैं, जो सभी एक जैसे गुणों वाले और स्वस्थ होते हैं. इसे सूक्ष्म संवर्धन (Micropropagation) भी कहा जाता है.