बासमती चावल की सुगंध और स्वाद की पूरी दुनिया दीवानी है, लेकिन इस चमक-दमक के पीछे किसान की कड़ी मेहनत और कई जोखिम छिपे होते हैं. बासमती की खेती में सबसे बड़ा खतरा उन कीटों और रोगों से होता है, जो फसल की उपज ही नहीं, उसकी क्वालिटी को भी बुरी तरह प्रभावित करते हैं. अगर किसान ने वक्त रहते इन कीटों को नहीं पहचाना और उचित कदम नहीं उठाया तो पूरी फसल की कमाई मिट्टी में मिल सकती है. इसलिए जरूरी है कि किसान सतर्क रहें और समय रहते इन खतरनाक कीटों और रोगों से निपटने की तैयारी कर लें.
बासमती की फसल पर सबसे ज्यादा कीटों का खतरा
उत्तर प्रदेश सरकार के कृषि विभाग के मुताबिक, अन्य फसलों की तुलना में बासमती फसल कीटों और रोगों के प्रति ज्यादा संवेदनशील होती है. ये कीट फसल की उपज को प्रभावित करते हैं, पौधों को कमजोर कर देते हैं और दानों की क्वालिटी को गिरा देते हैं. खासतौर पर अंतरराष्ट्रीय बाजार में बासमती चावल की चमक तभी टिकती है जब उसकी क्वालिटी बरकरार रहे. लेकिन अगर कीटों का समय पर नियंत्रण न किया जाए तो उत्पादन घट जाता है और किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ता है.
ये हैं बासमती के सबसे खतरनाक कीट
- भूरा और सफेद फुदका, यह कीट पौधे का रस चूसते हैं, जिससे फसल सूख जाती है.
- तना छेदक कीट, यह कीट तनों में सुराख कर देता है, जिससे कल्ले मर जाते हैं.
- गंधी कीट , यह कीट चावल में बदबू भर देता है, जिससे खुशबू और स्वाद दोनों बिगड़ते हैं.
- पत्ती लपेटक, यह कीट पत्तियां खाकर पौधे की बढ़त रोक देता है.
ये रोग भी करते हैं भारी नुकसान
बासमती धान की फसल में कई तरह की बीमारियां लग सकती हैं जो पैदावार और क्वालिटी दोनों को नुकसान पहुंचाती हैं. झोंका (ब्लास्ट) रोग में पत्तियों और बालियों पर धब्बे बन जाते हैं, जिससे दाने झड़ सकते हैं, वहीं, भूरा धब्बा रोग में पत्तियों पर भूरे रंग के चकत्ते पड़ते हैं, जिससे पौधे कमजोर हो जाते हैं. इसके अलावा, पर्णच्छद झुलसा, जीवाणु पत्ती झुलसा, खैरा, मिथ्या कण्डुआ और पर्णच्छद विगलन जैसे रोग भी पौधे की वृद्धि रोक देते हैं. समय पर पहचान और इलाज न किया जाए तो पूरी फसल प्रभावित हो सकती है और किसानों को भारी आर्थिक नुकसान झेलना पड़ता है.
इन कीटों और रोगों से फसल को बचाने के लिए कृषि वैज्ञानिक रासायनिक और जैविक नियंत्रण का संतुलन अपनाने की सलाह देते हैं. जैविक विधियों से खेत में मित्र कीटों की संख्या बनी रहती है और रसायनों पर निर्भरता कम होती है. समय पर फसल का निरीक्षण, कीटों की पहचान और सही दवा का छिड़काव बेहद जरूरी है.