सेब ने छीनी बादाम के बागानों की रौनक, जानिए क्यों कश्मीर के किसान नहीं करना चाहते इसकी खेती?

दशकों तक बादाम की खेती कश्मीर की पहचान रही है. लेकिन पिछले कुछ सालों में इस पारंपरिक फसल का रकबा काफी घटा है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, साल 2006–07 में जहां 16,374 हेक्टेयर भूमि पर बादाम की खेती होती थी, वहीं 2019–20 तक यह घटकर सिर्फ 4,177 हेक्टेयर रह गई.

Kisan India
नई दिल्ली | Published: 15 Oct, 2025 | 07:38 AM

Kashmir Almond Farming: कभी कश्मीर की वादियों में बसंत का स्वागत बादाम के फूलों से होता था. घाटी के करीवा इलाकों में फैले बादाम के बागान जब गुलाबी और सफेद फूलों से लद जाते थे, तो पूरा कश्मीर एक चित्र की तरह खिल उठता था. लेकिन अब यह नारा तेजी से गायब हो रहा है. खेती की दिशा बदल रही है किसान अब पारंपरिक बादाम की जगह सेब की खेती और रिहायशी निर्माण की ओर बढ़ रहे हैं.

बदलता कश्मीर का कृषि परिदृश्य

दशकों तक बादाम की खेती कश्मीर की पहचान रही है. लेकिन पिछले कुछ सालों में इस पारंपरिक फसल का रकबा काफी घटा है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, साल 200607 में जहां 16,374 हेक्टेयर भूमि पर बादाम की खेती होती थी, वहीं 201920 तक यह घटकर सिर्फ 4,177 हेक्टेयर रह गई. इसी अवधि में उत्पादन भी 15,183 टन से गिरकर 9,898 टन पर पहुंच गया. यह गिरावट केवल आंकड़ों में नहीं, बल्कि कश्मीर की सांस्कृतिक और आर्थिक पहचान में भी दिखती है.

किसानों का रुख सेब की ओर

कश्मीर के किसानों का कहना है कि अब बादाम की खेती पहले जैसी लाभदायक नहीं रही. बडगाम के किसान अब्दुल मजीद बताते हैं, “पहले हमारी पूरी आजीविका बादाम पर निर्भर थी, लेकिन अब मेहनत के मुकाबले कमाई बहुत घट गई है. 1990 में जहां कठोर छिलके वाले बादाम की कीमत 40 रुपये किलो थी, वहीं आज यह 130150 रुपये किलो मिलती है, लेकिन खर्चा और श्रम उससे कहीं ज्यादा बढ़ गया है.”

इसी कारण किसान सेब की खेती की ओर बढ़ रहे हैं, जो जल्दी फल देती है और बाजार में बेहतर दाम मिलते हैं. कई किसान अपने पुराने बादाम के बागानों को काटकर वहां मकान या प्लॉट बना रहे हैं, जिससे कृषि भूमि भी लगातार घट रही है.

बादाम की गुणवत्ता, पर बाार की कमी

बिजनेस लाइन की खबर के अनुसार, जम्मू-कश्मीर देश के कुल बादाम उत्पादन का 90 प्रतिशत से अधिक हिस्सा देता है. यहां के करीवा इलाकों में कठोर और नरम छिलके वाली दोनों किस्में उगाई जाती हैं. खास बात यह है कि ये लगभग पूरी तरह जैविक (ऑर्गेनिक) होती हैं और स्वाद में कैलिफोर्निया जैसे विदेशी बादामों से भी बेहतर मानी जाती हैं.

मखदूम और वारिस जैसी नरम छिलके वाली किस्में स्थानीय उपभोक्ताओं में आज भी लोकप्रिय हैं, लेकिन उनकी उपज कम होने और बाजार तक पहुंच न होने की वजह से किसान निराश हैं.

बाजार और प्रसंस्करण सुविधाओं की कमी

किसानों का कहना है कि कश्मीर में बादाम के लिए कोई समर्पित ‘ड्राई फ्रूट मंडी’ नहीं है. न तो पर्याप्त प्रसंस्करण इकाइयां हैं और न ही ब्रांडिंग की सुविधा. इससे किसानों को अपने उत्पादों का सही मूल्य नहीं मिल पाता.

शेर-ए-कश्मीर कृषि विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर तारिक रसील बताते हैं, “नरम छिलके वाली किस्में जैसे वारिस और मखदूम, परंपरागत कठोर छिलके वाली किस्मों की तुलना में चार से पांच गुना कम उपज देती हैं. साथ ही, इनमें पक्षियों से होने वाला नुकसान ज्यादा होता है और उनका छिलका हटाना मशीनों से संभव नहीं है, जिससे अतिरिक्त मजदूरी लगती है.”

सरकारी सहयोग और नई तकनीक की जरूरत

विशेषज्ञों का कहना है कि अगर सरकार की ओर से ठोस सहायता, बेहतर बाजार व्यवस्था और नई उच्च-उपज वाली किस्मों पर काम नहीं किया गया, तो कश्मीर की बादाम खेती पूरी तरह खत्म हो सकती है. बदलते मौसम, शहरीकरण और किसानों की आर्थिक प्राथमिकताओं ने मिलकर बादाम की पहचान को संकट में डाल दिया है. एक समय घाटी की सुंदरता और समृद्धि का प्रतीक रहे ये बागान अब धीरे-धीरे इतिहास बनते जा रहे हैं.

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