Jute Price by IJMA: साल 2025 जूट उद्योग के लिए आसान नहीं रहा. कभी पर्यावरण-अनुकूल पैकेजिंग की पहचान माना जाने वाला यह पारंपरिक क्षेत्र इस साल कई मोर्चों पर जूझता नजर आया. कच्चे जूट की भारी कमी, अचानक आसमान छूती कीमतें और मजबूरी में प्लास्टिक पैकेजिंग की बढ़ती हिस्सेदारी ने पूरे उद्योग को संकट में डाल दिया. जो समस्या साल की शुरुआत में केवल मांग और आपूर्ति के असंतुलन तक सीमित लग रही थी, वह साल खत्म होते-होते जूट सेक्टर के अस्तित्व पर सवाल खड़े करने वाली चुनौती बन गई.
खेतों से शुरू हुआ संकट
जूट उद्योग की परेशानी की जड़ सीधे खेतों से जुड़ी है. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि खरीफ सीजन 2025 में जूट की खेती लगभग 5.56 लाख हेक्टेयर में हुई, जबकि सामान्य तौर पर यह रकबा करीब 6.60 लाख हेक्टेयर रहता है. यानी एक ही साल में जूट के रकबे में साफ गिरावट देखने को मिली. हैरानी की बात यह रही कि यह गिरावट तब दर्ज हुई, जब सरकार ने कच्चे जूट का न्यूनतम समर्थन मूल्य 5,650 रुपये प्रति क्विंटल तय किया था.
असल समस्या यह है कि बीते कई सालों तक जूट के बाजार भाव MSP से नीचे बने रहे. इससे किसानों को लगातार नुकसान उठाना पड़ा और उनका भरोसा इस फसल से धीरे-धीरे टूटता चला गया. नतीजतन, किसानों ने मक्का जैसी वैकल्पिक फसलों की ओर रुख किया, जिनकी बिक्री आसान थी और जिनकी मांग पोल्ट्री फीड और एथेनॉल उद्योग के कारण लगातार बनी हुई थी. यही बदलाव आगे चलकर जूट संकट की बड़ी वजह बन गया.
कीमतों की मार से हिला पूरा सेक्टर
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, पिछले करीब 15 महीनों में जूट की कीमतों में जो भारी उतार-चढ़ाव देखने को मिला, उसने उद्योग की नींव हिला दी. 2024-25 के दौरान कच्चे जूट के दाम गिरकर लगभग 4,700 रुपये प्रति क्विंटल तक आ गए थे. उस समय बाजार में सुस्ती और सरकारी खरीद की धीमी रफ्तार ने हालात और बिगाड़ दिए. लेकिन 2025 के अंत तक तस्वीर पूरी तरह बदल गई. जूट की खेती घटने और मांग बने रहने के कारण कई मंडियों में कच्चे जूट के दाम 11,000 रुपये प्रति क्विंटल के पार पहुंच गए.
यह तेजी किसी सट्टेबाजी का नतीजा नहीं थी, बल्कि बाजार में वास्तविक कमी का संकेत थी. जब दाम नीचे थे, तब किसानों को पर्याप्त सहारा नहीं मिला और जब फसल कम हो गई, तब उद्योग को महंगे कच्चे माल का सामना करना पड़ा.
जूट मिलों पर बढ़ता दबाव
कच्चे जूट की कमी और रिकॉर्ड ऊंची कीमतों का सबसे गहरा असर जूट मिलों पर पड़ा. उत्पादन लागत तेजी से बढ़ी, लेकिन सरकार की लागत-आधारित कीमत निर्धारण प्रणाली उसी रफ्तार से नहीं बदल सकी. इससे कई मिलों के लिए खर्च निकालना मुश्किल हो गया. मजबूरी में कुछ मिलों ने उत्पादन घटाया, कहीं शिफ्ट कम करनी पड़ी और कई जगह अस्थायी तौर पर काम बंद करना पड़ा.
पश्चिम बंगाल और पूर्वी भारत की कई जूट मिलें अब सिर्फ पुराने ऑर्डर निपटाने तक सीमित रह गई हैं. इसका सीधा असर लाखों मजदूरों पर पड़ा, जिनकी रोजी-रोटी इसी श्रम-प्रधान उद्योग से जुड़ी है. रोजगार को लेकर अनिश्चितता बढ़ती चली गई.
प्लास्टिक बैग की मजबूरी
जूट की कमी ने सरकार को भी कठिन फैसले लेने पर मजबूर कर दिया. खाद्यान्न की खरीद और भंडारण के लिए पर्याप्त जूट बैग उपलब्ध न होने पर प्लास्टिक बैग्स को मंजूरी देनी पड़ी. खरीफ विपणन सीजन 2025-26 और रबी सीजन 2026-27 के लिए एचडीपीई और पीपी बैग्स की अनुमति इसी मजबूरी का नतीजा रही. इससे जूट उद्योग की दशकों पुरानी स्थिर व्यवस्था को गहरा झटका लगा और पर्यावरण-अनुकूल पैकेजिंग का सपना भी धुंधला पड़ा.
आगे की चुनौती
हालांकि सरकार ने जमाखोरी रोकने के लिए कच्चे जूट के भंडारण की सीमा तय की है, लेकिन इससे कीमतों में खास राहत नहीं मिली. विशेषज्ञ यह मानते हैं कि जब तक किसानों के लिए जूट की खेती दोबारा भरोसेमंद और लाभकारी नहीं बनाई जाती, तब तक यह संकट खत्म नहीं होगा.
साल 2025 ने साफ संकेत दिया है कि जूट उद्योग को केवल पर्यावरण के नाम पर नहीं, बल्कि ठोस और समय पर नीति समर्थन के जरिए बचाने की जरूरत है. किसानों, मिलों और सरकार के बीच संतुलन बिगड़ने का असर पूरे सेक्टर पर पड़ता है. अब सबकी नजर इस पर टिकी है कि आने वाले समय में इस पारंपरिक उद्योग को फिर से मजबूत करने के लिए कौन-से ठोस कदम उठाए जाते हैं.