World Food Day: आज देश के हर मंच पर “वोकल फॉर लोकल” का नारा गूंजता है. नेताओं से लेकर आम लोग तक, हर कोई ‘लोकल’ को बढ़ावा देने की बात करता है. कहा जाता है कि भारत अब कृषि क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन गया है, हम खाद्यान्न के भंडार हैं, और दुनिया को अनाज देने की ताकत रखते हैं. लेकिन सवाल ये है, अगर हम वाकई इतने आत्मनिर्भर हैं, तो फिर बार-बार अनाज और चीनी जैसी वस्तुओं के निर्यात पर रोक क्यों लगानी पड़ती है? तो चलिए World Food Day के मौके पर जानते हैं दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा खाद्यान्न उत्पादक देश होने के बावजूद भी हम पूरी तरह से आत्मनिर्भर क्यों नहीं हैं.
रिकॉर्ड तो बन रहे हैं, पर जमीन की हकीकत अलग है
बीते साल भारत ने कृषि क्षेत्र में नया इतिहास रचा. वित्त वर्ष 2024–25 में देश ने करीब 354 मिलियन टन खाद्यान्न का उत्पादन किया, जो अब तक का सबसे बड़ा आंकड़ा है. धान, गेहूं, मक्का, दलहन और तिलहन सभी में अच्छी पैदावार हुई.
धान: 149.07 मिलियन टन
गेहूं: 117.50 मिलियन टन
मक्का: 42.28 मिलियन टन
दलहन का उत्पादन भी बढ़कर 25.23 मिलियन टन तक पहुंच गया, जबकि तेलहन उत्पादन 42.60 मिलियन टन रहा, जो पिछले साल की तुलना में लगभग 3 मिलियन टन अधिक है. लेकिन यह सफलता सिर्फ कागज पर अच्छी लगती है. खेतों में अभी भी कई ऐसी समस्याएं हैं जो किसानों की कमर तोड़ रही हैं.

भारत ने वित्त वर्ष 2024–25 में देश ने करीब 354 मिलियन टन खाद्यान्न का उत्पादन किया, photo credit- Hans India
सिर्फ उत्पादन नहीं, चुनौतियां भी हैं
हालांकि ये आंकड़े देश की प्रगति दिखाते हैं, लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू भी उतना ही महत्वपूर्ण है. मिट्टी की गिरती उर्वरा शक्ति, जलवायु परिवर्तन, अनियमित मानसून और किसानों की आय जैसी चुनौतियां अब भी सामने हैं. भारतीय मृदा एवं जल संरक्षण संस्थान की एक रिपोर्ट बताती है कि देश की लगभग 960 लाख हेक्टेयर भूमि क्षरण और रासायनिक अति-उपयोग के कारण खराब हो चुकी है. केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने हाल ही में कहा कि “मिट्टी की उर्वरा शक्ति तेजी से घट रही है, और आने वाले समय में यह धरती बंजर न हो जाए, इसके लिए हमें प्राकृतिक खेती और ऑर्गेनिक फार्मिंग की ओर लौटना होगा.”
किसान पर बोझ अब भी वही
भारत की लगभग 45 फीसदी आबादी खेती पर निर्भर है. यह क्षेत्र देश के GDP में करीब 18 फीसदी योगदान देता है. लेकिन सच्चाई यह है कि किसान अब भी असुरक्षा और असमानता से जूझ रहे हैं. खेती का लाभ किसानों तक पहुंच नहीं पाता. सरकारें MSP बढ़ाती हैं, योजनाएं लाती हैं, लेकिन जमीन पर प्रभाव सीमित रहता है.
कृषि उत्पादन में रिकॉर्ड तो हैं, पर किसानों की आय अब भी स्थिर नहीं है. उनकी लागत बढ़ती जा रही है, खाद, डीजल, बीज और मजदूरी सब महंगे हो चुके हैं. ऐसे में आत्मनिर्भरता का अर्थ सिर्फ “उत्पादन” नहीं बल्कि किसान की आर्थिक स्वतंत्रता होना चाहिए.

कृषि उत्पादन में रिकॉर्ड तो हैं, पर किसानों की आय अब भी स्थिर नहीं है. photo credit- pexels
निर्यात पर रोक…जरूरत या मजबूरी?
हाल के वर्षों में सरकार ने कई प्रमुख खाद्य वस्तुओं के निर्यात पर रोक लगाई, जैसे गेहूं (मई 2022 से), नॉन-बासमती चावल (जुलाई 2023 से) और चीनी पर भी निर्यात सीमा तय कर दी गई. सरकार का तर्क है कि यह कदम घरेलू जरूरतों को प्राथमिकता देने और कीमतों को नियंत्रण में रखने के लिए जरूरी हैं.
लेकिन सवाल उठता है, अगर उत्पादन इतना अधिक है, तो फिर घरेलू जरूरतों की पूर्ति में डर क्यों है? दरअसल, भारत का उत्पादन तो बढ़ रहा है, पर भंडारण क्षमता, वितरण प्रणाली और जलवायु अस्थिरता जैसी चुनौतियां अब भी अनसुलझी हैं. एक तरफ अनाज सड़ जाता है, दूसरी ओर कई हिस्सों में लोगों को सस्ता राशन नहीं मिल पाता, यही असली विडंबना है.
नीतियों का नियंत्रण या संतुलन?
सरकार अब निर्यात को पूरी तरह रोकने की बजाय, उसे नियंत्रित ढंग से फिर शुरू करने की नीति अपना रही है. जैसे, नॉन-बासमती सफेद चावल के निर्यात को अब अनुमति दी गई है, लेकिन इसके लिए APEDA के साथ रजिस्ट्रेशन जरूरी कर दिया गया है. इसी तरह, de-oiled rice bran यानी चावल के चोकर से बचा उत्पाद का निर्यात भी दो साल बाद फिर शुरू किया गया है. यह दिखाता है कि सरकार अब धीरे-धीरे “संपूर्ण प्रतिबंध” की बजाय “नियंत्रित अनुमति” की नीति पर बढ़ रही है ताकि बाजार में संतुलन बना रहे और घरेलू आपूर्ति पर असर न पड़े.

भारत का उत्पादन तो बढ़ रहा है, पर भंडारण क्षमता, वितरण प्रणाली और जलवायु अस्थिरता जैसी चुनौतियां अब भी अनसुलझी हैं, photo credit-pexels
क्या निर्यात रोकना सही रास्ता है?
निर्यात रोकने का असर सिर्फ नीतियों तक सीमित नहीं रहता. इसका सीधा असर किसानों और देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है. जब निर्यात बंद होता है, तो किसानों को अंतरराष्ट्रीय बाजार में अपने उत्पाद की बेहतर कीमत नहीं मिलती.
देश को विदेशी मुद्रा की आमद घट जाती है, और भारत की वैश्विक विश्वसनीयता पर भी असर पड़ता है. सिर्फ नियंत्रण की नीति से हम दीर्घकालिक लाभ नहीं पा सकते. जरूरत है एक ऐसी सोच की, जो घरेलू जरूरतों और वैश्विक अवसरों के बीच संतुलन बनाए रखे.
आत्मनिर्भरता के बीच बढ़ता खाद्य आयात
एक तरफ हम “वोकल फॉर लोकल” और आत्मनिर्भर भारत की बात करते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि भारत अब भी कई खाद्य उत्पादों के लिए विदेशी बाजार पर निर्भर है.
2024 में भारत की दाल (पल्स) आयात मात्रा रिकॉर्ड स्तर पर पहुँच गई लगभग 6.5 मिलियन टन आयात हुई, जो पिछले वर्ष की तुलना में लगभग 40 फीसदी अधिक है.इसके अलावा, एक शोध रिपोर्ट में यह कहा गया है कि 2024 में भारत की दालों का आयात 84 फीसदी बढ़ गया, और दालों का आयात लगभग 16.2% हिस्सेदारी लेता है कुल घरेलू खपत में.
2024–25 में भारत ने लगभग 38.5 बिलियन डॉलर के कृषि और खाद्य उत्पादों का आयात किया, जो पिछले वर्षों की तुलना में लगभग 17.2 डॉलर अधिक था.इस आयात का सबसे बड़ा हिस्सा खाद्य तेल, दाल और ताजे फल जैसी आवश्यक वस्तुओं पर गया.यह आंकड़ा दिखाता है कि भले ही देश ने अनाज उत्पादन में सुधार किया हो और आत्मनिर्भर बनने की दिशा में कदम बढ़ाए हों, लेकिन कुछ महत्वपूर्ण खाद्य उत्पादों के लिए हम अभी भी विदेशी बाजार पर निर्भर हैं.
इसका कारण घरेलू उत्पादन में असंतुलन, जलवायु प्रभाव और खेती के पैटर्न में विविधता की कमी है. अगर भारत को सच्चे मायनों में कृषि महाशक्ति बनना है, तो सिर्फ अनाज में नहीं, बल्कि तेल, दाल और पशु-खाद्य उत्पादन में भी आत्मनिर्भरता लानी होगी.