जब आप खेत की हरियाली को देखकर सुकून महसूस करते हैं, तो शायद ही यह सोचते होंगे कि उसी खेती से निकलने वाला जहर आपकी सांसों को धीरे-धीरे कमजोर कर रहा है. खेती सिर्फ अनाज नहीं उगाती, अब वह हवा में छिपा एक नया संकट भी बन चुकी है ‘एग्रीकल्चरल एयर पॉल्यूशन’ यानी खेती से होने वाला वायु प्रदूषण.
मीडिया में छपी खबरों के अनुसार, विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की हालिया रिपोर्ट “Agriculture- Sectoral Solutions for Air Pollution and Health: Technical Brief (2025)” में दावा किया गया है कि दुनियाभर में हर साल 5 लाख से ज्यादा लोग खेती से जुड़े प्रदूषण के कारण समय से पहले अपनी जान गंवा रहे हैं. अकेले भारत में 68,000 मौतें इस वजह से होती हैं और इनमें से बड़ी संख्या पराली जलाने से जुड़ी है.
खेत से उठता धुआं, मौत की आहट
खासतौर पर उत्तर भारत में पराली जलाने की परंपरा अब जानलेवा बन चुकी है. यह सिर्फ किसानों की मजबूरी नहीं, एक ऐसा चक्र बन गया है जो दिल्ली और उत्तर भारत के शहरों को हर साल धुंध के गर्त में धकेल देता है. धान की कटाई के बाद फसल का बचा हुआ हिस्सा जलाने से निकलने वाला धुआं हवा में PM2.5 जैसे सूक्ष्म कणों को जन्म देता है, जो फेफड़ों तक पहुंचकर सांस और हृदय संबंधी बीमारियों का कारण बनते हैं.
खामोश हत्यारे- खाद, गोबर और गैसें
खेती में इस्तेमाल होने वाले रासायनिक उर्वरक और मवेशियों का गोबर भी हवा को जहरीला बना रहे हैं. इनसे निकलने वाली अमोनिया और मीथेन गैसें वायुमंडल में जाकर छोटे-छोटे कण बनाती हैं जो गंभीर स्वास्थ्य संकट पैदा करते हैं. यूरोप में खेती से निकलने वाला 94 फीसदी अमोनिया और 56 फीसदी मीथेन का स्रोत है, वहीं भारत में भी हालात कुछ अलग नहीं हैं.
सिर्फ सेहत नहीं, फसल और पर्यावरण पर भी असर
यह प्रदूषण केवल इंसानों को ही नहीं, फसलों को भी नुकसान पहुंचा रहा है. WHO के मुताबिक, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड, ओजोन और सल्फर डाइऑक्साइड जैसे प्रदूषक फसल की पैदावार घटाते हैं. एक रिपोर्ट के अनुसार चीन में वायु गुणवत्ता में सुधार से सर्दियों की फसलों की उपज में 28 फीसदी तक का इजाफा हुआ, जबकि यूरोप में यह आंकड़ा 10 फीसदी रहा. अमेरिका में 1999 के बाद वायु गुणवत्ता सुधार से कुल फसल उत्पादन में 20 फीसदी तक की बढ़त देखी गई.
भारत के लिए चेतावनी
भारत में खेती का योगदान सिर्फ भोजन तक सीमित नहीं है, यह आज करोड़ों की जीविका है. लेकिन यदि हवा ही सांस लेने लायक न रहे, तो भोजन की कीमत जिंदगी हो जाती है. WHO की रिपोर्ट कहती है कि अगर वैश्विक स्तर पर कृषि प्रदूषण में 50 फीसदी की कटौती की जाए, तो हर साल 2 लाख से अधिक लोगों की जान बचाई जा सकती है और साथ ही फसलों की उपज भी बेहतर हो सकती है.
टिकाऊ खेती और नीति में बदलाव
इस संकट से निपटने का रास्ता भी खेती के भीतर ही छिपा है. सरकारों को चाहिए कि वे नो-बर्न विकल्प, जैविक खाद, बेहतर गोबर प्रबंधन और क्लीन एग्रीकल्चर को नीति में शामिल करें. पौधों पर आधारित खानपान (Plant-based diet) को बढ़ावा देकर भी कृषि से होने वाले प्रदूषण को काफी हद तक रोका जा सकता है.
ब्राजील के साओ पाउलो में शुगरकेन की कटाई से पहले जलाने की परंपरा पर रोक लगाकर 2022 तक 99 फीसदी फसल बिना जलाए काटी जाने लगी जिससे 70 मिलियन टन से ज्यादा प्रदूषण को रोका गया.
विशेषज्ञों का मानना हैं कि स्वास्थ्य, पर्यावरण और कृषि को अलग-अलग नहीं, बल्कि एक साथ देखने की जरूरत है, इसके तहत गांव और शहर दोनों की हवा, इंसानों के फेफड़े, मवेशियों का रख-रखाव, और फसल की सेहत सब जुड़ी हुई हैं.