तिल उत्पादन में नंबर 1 है भारत, जानिए किसान कैसे शुरू करें इसकी खेती

बीज की बुवाई के लिए लगभग 5 किलो बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता है. बीज बोने से पहले फफूंदनाशक से उपचारित करना जरूरी है ताकि बीज जनित रोगों से बचाव हो सके.

नई दिल्ली | Published: 20 Jun, 2025 | 02:52 PM

तिल, जिसे देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है-कहीं तिल, कहीं इल्लू, कहीं नुव्वुलु. यह भारत की सबसे पुरानी और महत्वपूर्ण तिलहन फसलों में से एक है. यह सिर्फ हमारी सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा नहीं है, बल्कि किसानों के लिए आमदनी का एक भरोसेमंद स्रोत भी बन चुका है. आज जब किसान नई तकनीकों को अपनाकर और बाजार से जुड़कर बेहतर कमाई करना चाहते हैं, तब तिल की खेती उन्हें कम खर्च में अच्छा मुनाफा देने का मौका देती है.

तिल की खेती का क्षेत्र और उत्पादन

भारत तिल के उत्पादन में दुनिया में पहले नंबर पर है. लगभग 19.47 लाख हेक्टेयर जमीन पर तिल की खेती होती है, जिससे करीब 8.66 लाख टन तिल का उत्पादन होता है. हालांकि, हमारी उपज औसतन 413 किलो प्रति हेक्टेयर है, जो कि वैश्विक औसत 535 किलो प्रति हेक्टेयर से कम है. इसका कारण बारिश पर निर्भरता, सीमित जमीन और कम निवेश माना जाता है. लेकिन अब वैज्ञानिक खेती और उन्नत किस्मों के इस्तेमाल से यह अंतर कम किया जा सकता है.

तिल की खेती कहां और कैसे होती है?

तिल की खेती लगभग पूरे भारत में होती है. इसे खरीफ, रबी और गर्मी तीनों मौसमों में उगाया जा सकता है. तिल के लिए सबसे अच्छा तापमान 25 से 35 डिग्री सेल्सियस होता है. बहुत ज्यादा गर्मी (45 डिग्री से ऊपर) या ठंड (15 डिग्री से नीचे) से तिल की उपज प्रभावित होती है.

तिल लगभग हर तरह की मिट्टी में उग सकता है, बशर्ते मिट्टी में पानी निकासी अच्छी हो. हल्की से मध्यम मिट्टी और 5.5 से 8.0 पीएच वाली जमीन तिल के लिए सबसे उपयुक्त होती है.

तिल की किस्में और खेती का तरीका

हर राज्य में तिल की अलग-अलग उन्नत किस्में विकसित की गई हैं, जैसे गुजरात की ‘गुजरात तिल-1’, मध्य प्रदेश की ‘टीकेजी-306’, राजस्थान की ‘आरटी-127’, और तमिलनाडु की ‘वीआरआई-2’. इनमें सफेद, भूरे और काले रंग के बीज पाए जाते हैं.

बीज की बुवाई के लिए लगभग 5 किलो बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता है. बीज बोने से पहले फफूंदनाशक से उपचारित करना जरूरी है ताकि बीज जनित रोगों से बचाव हो सके. बुवाई के बाद खेत को खरपतवार मुक्त रखना भी बहुत जरूरी है क्योंकि शुरुआती 20-25 दिन तिल के लिए सबसे नाजुक होते हैं.

सिंचाई और पोषण का ध्यान

तिल की सिंचाई जरूरत के अनुसार की जानी चाहिए. बारिश पर आधारित खेती में भी अगर संभव हो तो कम से कम दो बार सिंचाई करनी चाहिए- एक शाखा बनने के समय और दूसरी फूल आने के समय. इससे उपज में 35 से 50 प्रतिशत तक बढ़ोतरी हो सकती है. तिल के लिए नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटाश की सही मात्रा देना जरूरी होता है. कुछ राज्यों में सल्फर और जिंक की भी पूर्ति की सलाह दी जाती है.

कीट और रोगों से बचाव

तिल में सबसे ज्यादा समस्या पत्ती और फली की इल्ली, गॉल फ्लाई और फिलोडी जैसी बीमारियों की होती है. इनसे बचाव के लिए समय-समय पर जैविक या रासायनिक छिड़काव करना चाहिए. रोगग्रस्त पौधों को तुरंत खेत से हटा देना चाहिए और बीजों को अच्छी तरह सुखाकर ही संग्रह करना चाहिए.

कटाई और भंडारण

जब तिल के पत्ते पीले पड़ने लगें और झुक जाएं, तब कटाई का सही समय होता है. कटाई सुबह करनी चाहिए. कटाई के बाद तिल को डंडियों से पीटकर निकाला जाता है और साफ धूप में लगभग 7 दिन तक सुखाया जाता है. तिल को मिट्टी या लकड़ी के बर्तनों में एक साल तक सुरक्षित रखा जा सकता है.