पहली तस्वीर मंजू की. नाम कुछ भी हो सकता है. गांव कोई भी हो सकता है. कहानियां हर गांव की लगभग ऐसी ही हैं. मंजू फिक्रमंद है. किसानी में चिंताओं की कभी कमी नहीं होती. बारिश, सूखे, जानवर न चर जाएं वगैरह वगैरह… लेकिन आज की सबसे बड़ी चिंता ये है कि वह अकेली है. पति कहीं बाहर गया है. लेकिन रात में खेत जाना जरूरी है. फसल का ध्यान रखने के लिए खेत पर होना ही पड़ेगा. अब रात में मंजू खेत कैसे जाए. बारिश हुई है, तो रास्ते का हाल बुरा है. खेत तक जाने के लिए वैसे ही सड़क नहीं, ऐसे में बारिश ने उस रास्ते को बेहाल कर दिया है, जिससे गुजरकर खेत तक पहुंच सकते हैं. दिन में तो भरा पानी, गड्ढे नजर आ जाते हैं. लेकिन अंधेरी रात में क्या करें. खेत घर से दो किलोमीटर दूर है. ऐसे में सुरक्षा का मुद्दा सबसे ऊपर है ही.
दूसरी तस्वीर सविता की. यहां भी गांव और नाम कोई भी हो सकता है. सविता खुद किसान है लेकिन अपनी बेटी के लिए आए बड़े किसान घर के रिश्ते को आज ही ठुकराया है. वो नहीं चाहती कि उनकी बेटी किसान से शादी करे.
तीसरी तस्वीर, कविता की है. कविता का सबसे बड़ा डर ये है कि अंधेरे में गन्ने के खेत में कहीं सांप ने काट लिया तो! ये सारी कहानियां और डर औरंगाबाद और जलगांव के बीच एक गांव, पिंपलगांव में रहने वाली महिला किसानों के हैं. लेकिन यह कहानी देश के किसी भी गांव की हो सकती है. पिंपलगांव की चुनौतियां दरअसल, पूरे देश के हर गांव में महिला किसानों की चुनौतियां हैं.
सुनने में सब कुछ बड़ा ही सामान्य लगेगा. जो भी गांव और छोटे किसानों की जिंदगी के बारे में जानता है, उसे पता है कि ये चुनौतियां तो आएंगी ही. इसीलिए बहुत ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता. लेकिन इन महिला किसानों की चुनौतियां भी बड़ी बेसिक सी सुविधाओं के साथ हल की जा सकती हैं. पक्की सड़क, रात में स्ट्रीट लैंप, सुरक्षित माहौल. लेकिन ऐसा होना आसान नहीं.
इन महिला किसानों से मिल कर, इनसे बात करके पता चलता है कि गांव आज भी शहरों से कितने दूर हैं, कितने पिछड़े, कितने वंचित! जहां एक तरफ हम दस मिनट में खाने से लेकर हर सामान को मंगाने के लिए इंस्टा, बोल्ट डिलीवरी आदि हो रहे हैं, वहीं इसी देश का एक बड़ा तबका ऐसा है जो आज भी सोच रहा है कि शाम के बाद 6 फुट के गन्ने के खेत में आखिर जाऊं तो जाऊं कैसे!
इन चुनौतियों और बेसिक सुविधाओं की कमी के बीच इन महिलाओं के पास जानकारी का कोई अभाव नहीं था. उन्हें अधिकार भले न मिले हों, लेकिन इनके बारे में उन्हें पता है. मेरा सबसे बड़ा ताज्जुब ये था कि इस गांव की सभी महिलाओं को मैटरनिटी लीव के बारे में पता था. पीएफ के बारे में पता था. ज्यादातर महिला किसानों की शिकायत थी कि सरकारी नौकरी में छह महीने की पेड लीव मिलती है जबकि महिला किसानों को डिलीवरी होने तक काम करना पड़ता है.
बच्चा होने के बाद अगर वो खेत में कुछ महीने नहीं जा सकती तो उन्हें अपने खेत की देखभाल के लिए किसी को रखना पड़ता है और जाहिर है ये उनके लिए एक एडिशनल कॉस्ट यानी अतिरिक्त खर्चा है. इस गांव में कुछ समय बिताने के बाद मेरे मन में कई सवाल थे, जिसमें सबसे ऊपर था कि आखिर इतनी बेसिक सुविधाएं क्यों नहीं मिल सकतीं. लेकिन इसके साथ महिलोँ से जुड़े सवाल भी थे.
पहला सवाल, एक सामान्य महिला किसान के लिए खेती में क्या रखा है?
दूसरा सवाल, वो अपने ही खेत में एक मजदूर की तरह है. अगर वाकई हालात इतने बुरे हैं और ज्यादातर महिलाएं खेती से मुंह मोड़ रही हैं तो आने वाले वक्त में खेती का क्या भविष्य है?
तीसरा सवाल, बल्कि सवाल से ज्यादा उम्मीद कि इतने कम सपोर्ट के साथ ये इतनी दबंग हैं तो जरा सी मदद से ये क्या नहीं कर सकतीं!
हम भले ही किसानों के कार्यक्रम में कम महिलाओं को देखें. संबोधन में भी किसान भाइयों सुनें. लेकिन खेती किसानी के बारे में थोड़ा जानने वालों को भी पता है कि पुरुषों के मुकाबले भारत की खेती में महिलाओं का रोल काफी ज्यादा है. पुरुष किसानी से जुड़े कार्यक्रमों में ज्यादा दिखेंगे और महिलाएं खेतों में.
किसान इंडिया की पहल ‘मेरी आवाज़ सुनो‘ एक कोशिश है देश की महिला किसानों को समझने की. हम किसी समाधान का वादा नहीं कर रहे. मगर इस कैंपेन के जरिए हम लोगों तक ये जरूर पहुंचाएंगे कि भारत की महिला किसान चाहती क्या हैं. उनकी शिकायतें क्या हैं. उनकी आवाज को आप तक पहुंचाएंगे और उम्मीद करते हैं कि आपके सहयोग से हम इस गूंज को सरकार तक पहुंचाएंगे.