मई में ऐलान, दिसंबर में भी इंतजार… जीन-एडिटेड धान किस्में क्यों नहीं हो पाईं अब तक जारी

जिन दो धान किस्मों की घोषणा हुई थी, उनमें डीआरआर धान 100 (कमला) और पूसा डीएसटी राइस 1 शामिल हैं. ये दोनों किस्में जलवायु के अनुकूल हैं और बदलते मौसम में बेहतर प्रदर्शन करती हैं. इसके बावजूद इनकी व्यावसायिक रिलीज अभी तक नहीं हो पाई है. वजह तकनीकी नहीं, बल्कि पेटेंट से जुड़ा कानूनी पेच है.

Kisan India
नई दिल्ली | Published: 29 Dec, 2025 | 10:42 AM
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Genome edited rice: खेती आज ऐसे दौर से गुजर रही है, जहां किसान ज्यादा पैदावार चाहते हैं लेकिन पानी, खाद और मौसम की मार उनके सामने बड़ी चुनौती बन चुकी है. खासकर उत्तर भारत में गेहूं और धान जैसी मुख्य फसलों को लेकर नई किस्मों पर बहस तेज हो गई है. पंजाब में हाल ही में जिन गेहूं किस्मों को मंजूरी दी गई, वे भले ही ज्यादा उत्पादन देती हों, लेकिन उनमें पानी और उर्वरकों की खपत भी ज्यादा है. फरवरी में बढ़ते तापमान के साथ यह बोझ और बढ़ जाता है. ऐसे में वैज्ञानिक और किसान दोनों ही ऐसे समाधान की तलाश में हैं, जो टिकाऊ भी हो और खर्च भी कम करे.

जीनोम एडिटिंग से जगी नई उम्मीद

जीनोम एडिटिंग तकनीक को खेती का भविष्य माना जा रहा है. यह तकनीक फसलों के जीन में बहुत सूक्ष्म बदलाव करके उन्हें अधिक उपज देने वाला, कम पानी में पनपने वाला और मौसम के अनुकूल बनाती है. भारत में इस दिशा में काम कर रही प्रमुख संस्था भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने मई 2025 में धान की दो जीन-एडिटेड किस्मों की सफलता की घोषणा की थी. इन किस्मों से किसानों को बड़ी राहत मिलने की उम्मीद थी, लेकिन कहानी यहीं अटक गई.

बाजार तक पहुंचने से पहले ही रुक गई रफ्तार

बिजनेस लाइन की रिपोर्ट के अनुसार, जिन दो धान किस्मों की घोषणा हुई थी, उनमें डीआरआर धान 100 (कमला) और पूसा डीएसटी राइस 1 शामिल हैं. ये दोनों किस्में जलवायु के अनुकूल हैं और बदलते मौसम में बेहतर प्रदर्शन करती हैं. इसके बावजूद इनकी व्यावसायिक रिलीज अभी तक नहीं हो पाई है. वजह तकनीकी नहीं, बल्कि पेटेंट से जुड़ा कानूनी पेच है. इन किस्मों को विकसित करने में जिन विदेशी जीनोम एडिटिंग टूल्स का इस्तेमाल हुआ, उनके पेटेंट धारकों से समझौता अभी तक पूरा नहीं हो सका है.

पेटेंट की दीवार और किसानों की चिंता

जीनोम एडिटिंग में इस्तेमाल हुए CRISPR टूल्स के पेटेंट विदेशी कंपनियों के पास हैं, जिनमें Corteva Agriscience और Broad Institute प्रमुख हैं. ICAR इनसे समझौता करने की प्रक्रिया में काफी समय से जुटा है. बताया जा रहा है कि बातचीत अब अंतिम चरण में है, लेकिन जब तक समझौता नहीं होता, तब तक किसान इन उन्नत बीजों का लाभ नहीं ले पाएंगे.

किसानों को क्या मिल सकता है फायदा

इन किस्मों की खासियतें काफी आकर्षक हैं. कमला किस्म में पारंपरिक धान की तुलना में लगभग 19 प्रतिशत ज्यादा उपज देने की क्षमता है और यह नाइट्रोजन का बेहतर इस्तेमाल करती है. साथ ही यह फसल 15 से 20 दिन पहले तैयार हो जाती है, जिससे पानी और लागत दोनों की बचत होती है. वहीं पूसा डीएसटी राइस 1 सूखे और खारे पानी जैसी कठिन परिस्थितियों में भी अच्छी पैदावार देने में सक्षम है. यही वजह है कि किसान इन्हें लेकर उत्साहित हैं.

छोटे किसानों तक सीमित रहने की आशंका

पेटेंट समझौते के मसौदे को लेकर एक और चर्चा है. इसके अनुसार, इन टूल्स से बनी किस्मों की खेती की अनुमति केवल छोटे और सीमांत किसानों को मिल सकती है, जिनके पास 5 हेक्टेयर से कम जमीन है. हालांकि भारत में ज्यादातर किसान इसी श्रेणी में आते हैं, इसलिए वैज्ञानिकों का मानना है कि इसका असर सीमित रहेगा. फिर भी बड़े किसानों और बीज कंपनियों के लिए यह एक नई उलझन बन सकती है.

धीमी प्रक्रिया बनी बड़ी रुकावट

खेती से जुड़े विशेषज्ञों का कहना है कि शोध और नीति के बीच की यह दूरी किसानों के लिए नुकसानदायक है. ICAR को बजट में कई अहम मिशनों की जिम्मेदारी दी गई थी, लेकिन उन्हें जमीन पर उतरने में समय लग रहा है. ऐसे में तकनीक खेतों तक पहुंचने से पहले ही कागजों में उलझ जाती है.

स्वदेशी तकनीक भी इंतजार में

विडंबना यह है कि भारत के पास अपनी स्वदेशी जीनोम एडिटिंग तकनीक भी मौजूद है. कटक स्थित Central Rice Research Institute के वैज्ञानिकों ने TnpB’ नाम का एक देसी टूल विकसित किया है, जिसे पेटेंट भी मिल चुका है. इसके बावजूद इसे बड़े स्तर पर अपनाने में देरी हो रही है. इसे आगे बढ़ाने के लिए AGRINNOVATE के साथ बातचीत जरूर हुई है, लेकिन अभी यह प्रयोगशालाओं तक ही सीमित है.

इंतजार में किसान, उम्मीद अब भी कायम

कुल मिलाकर जीनोम एडिटिंग तकनीक भारतीय खेती को नई दिशा दे सकती है, लेकिन पेटेंट विवाद और प्रशासनिक सुस्ती ने इसकी रफ्तार धीमी कर दी है. किसान आज भी उस दिन का इंतजार कर रहे हैं, जब कम पानी और कम खाद में ज्यादा पैदावार देने वाले बीज उनके खेतों तक पहुंचेंगे. उम्मीद यही है कि आने वाले समय में ये अड़चनें दूर होंगी और खेती को वाकई भविष्य की तकनीक मिल पाएगी.

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