Stubble Burning: दिल्ली–NCR की हवा हर साल पराली जलने के मौसम में जहरीली हो जाती है. सरकार की मॉनिटरिंग टीमें और सैटेलाइट सिस्टम लगातार आग की घटनाओं पर नजर रखते हैं, ताकि प्रदूषण की सटीक स्थिति का अंदाजा लगाया जा सके. लेकिन एक नए अध्ययन ने चौंकाने वाला खुलासा किया है कि पंजाब और हरियाणा में जलने वाली ज्यादातर पराली उस समय जलाई जा रही है, जब सरकारी निगरानी सैटेलाइट उन्हें देख ही नहीं पाते. इससे न सिर्फ आग की वास्तविक संख्या कम दिखती है, बल्कि दिल्ली की हवा पर पड़ने वाले असर का सही अनुमान भी नहीं लग पाता.
सैटेलाइट क्यों चूक गए असली आग?
NDTV कि रिपोर्ट के अनुसार, iFOREST की स्टबल बर्निंग स्टेटस रिपोर्ट–2025 के अनुसार, पंजाब और हरियाणा में 90 फीसदी से ज्यादा बड़ी आग दोपहर बाद 3 बजे के बाद लगाई जाती हैं. जबकि सरकारी निगरानी प्रणाली सुबह 10:30 बजे से दोपहर 1:30 बजे के बीच के सैटेलाइट ऑब्जर्वेशन पर निर्भर है. इसका मतलब साफ है कि जब किसान खेतों में आग लगा रहे होते हैं, उस समय सरकारी सैटेलाइट भारत के ऊपर होते ही नहीं.
रिपोर्ट बताती है कि 2021 में पंजाब में केवल 3 फीसदी बड़ी आग 3 बजे के बाद लगती थीं, लेकिन 2024–25 में यह आंकड़ा 90 फीसदी से ज्यादा हो गया. यानी किसानों ने अपनी पराली जलाने का समय बदल लिया है, पर मॉनिटरिंग सिस्टम अब भी पुराने ढर्रे पर काम कर रहा है.
दिल्ली की हवा पर असर का गलत अनुमान
सैटेलाइट देखकर आग की संख्या कम दिखती है, तो जाहिर है कि दिल्ली–एनसीआर में इनसे उठने वाले धुएं का असर भी कम अनुमानित होता है. रिपोर्ट के मुताबिक, वर्तमान मॉनिटरिंग सिस्टम हवा में प्रदूषण के वास्तविक स्रोत को सही तरीके से पकड़ पाने में नाकाम है. iFOREST के विशेषज्ञों का कहना है कि अधूरे डेटा पर आधारित फोरकास्टिंग मॉडल दिल्ली की हवा की गुणवत्ता का सही अनुमान नहीं लगा पाते.
फिर भी जमीन पर दिख रही प्रगति
हालांकि रिपोर्ट यह भी बताती है कि पंजाब और हरियाणा में पिछले कुछ वर्षों में पराली जलाने की घटनाओं में वास्तविक कमी आई है. Sentinel-2 सैटेलाइट से की गई burnt-area mapping के अनुसार पंजाब में जली हुई जमीन 2022 के 31,447 वर्ग किमी से घटकर 2025 में लगभग 20,000 वर्ग किमी रह गई. वहीं हरियाणा में 2019 के 11,633 वर्ग किमी से घटकर 2025 में यह 8,812 वर्ग किमी रह गई. यह 25–35 फीसदी की वास्तविक कमी दिखाता है, जो बताता है कि पराली प्रबंधन जैसे हैप्पी सीडर, मल्चिंग और बायोगैस संयंत्र का उपयोग बढ़ा है.
सिर्फ आग गिनने से तस्वीर साफ नहीं होती
iFOREST का कहना है कि burnt-area mapping आग की सटीक मात्रा बताती है, जबकि केवल active fire-count से कई घटनाएं दर्ज ही नहीं होतीं. इसी वजह से नीति बनाने वालों को अधूरी जानकारी मिलती है और समस्या की सही गंभीरता सामने नहीं आ पाती.
निगरानी प्रणाली में सुधार की सख्त जरूरत
- विशेषज्ञों ने सुझाव दिया है कि सरकार को मौजूदा निगरानी प्रणाली में बड़े बदलाव करने होंगे. उनके अनुसार:
- CREAMS को active फायर काउंट के साथ बर्न्ट एरिया डेटा भी जारी करना चाहिए.
- दिल्ली की हवा का अनुमान लगाने वाले IITM के मॉडल को अपडेट करना होगा.
- Meteosat जैसे भू-स्थिर सैटेलाइट के 15-मिनट वाले रियल टाइम डेटा को भी जोड़ना आवश्यक है.
iFOREST के विशेषज्ञ का कहना है कि“आप वही सुधार सकते हैं, जिसे आप सही ढंग से माप रहे हों. अभी आंकड़े अधूरे हैं और नीति इन्हीं पर आधारित है.”
अब नजर यूपी और एमपी पर भी
रिपोर्ट यह भी बताती है कि पराली जलाने की समस्या अब पंजाब–हरियाणा से आगे बढ़कर यूपी और एमपी तक फैल रही है. प्रारंभिक आंकड़े बताते हैं कि इन राज्यों में किसानों द्वारा पराली जलाने की घटनाएं बढ़ रही हैं, इसलिए भविष्य की योजना में इन्हें शामिल करना जरूरी है.
यह अध्ययन साफ दिखाता है कि पराली जलाने की समस्या सिर्फ पंजाब और हरियाणा की नहीं, बल्कि पूरी उत्तरी भारत के लिए एक गंभीर पर्यावरणीय चुनौती है. सैटेलाइट सिस्टम को अपडेट करना, जमीन पर चल रहे प्रयासों को और मजबूत करना और किसानों को विकल्प देना—ये तीन कदम इस समस्या के स्थायी समाधान की दिशा में सबसे अहम हैं. वास्तविकता यह है कि हवा जहरीली तब बनती है, जब जमीन और तकनीक दोनों की निगरानी असल स्थिति को पकड़ नहीं पातीं. अब समय है कि देश इस अंतर को भरकर एक सटीक और आधुनिक निगरानी प्रणाली तैयार करे.