IIT की नई खोज: अब प्लास्टिक नहीं, खेती के कचरे से बनेगा इको-फ्रेंडली पैकेजिंग मटेरियल

इस तकनीक से न सिर्फ पर्यावरण को राहत मिलेगी, बल्कि किसानों और ग्रामीण कारीगरों के लिए एक नया व्यवसायिक अवसर भी खुलेगा. कृषि कचरा जो पहले सिर्फ जलाया जाता था, अब आमदनी का जरिया बन सकता है.

Kisan India
नई दिल्ली | Published: 1 Aug, 2025 | 09:21 AM

हमारे रोजमर्रा के जीवन में प्लास्टिक पैकेजिंग का इस्तेमाल आम बात हो गई है. फल, सब्जियां, ई-कॉमर्स प्रोडक्ट्स हर चीज प्लास्टिक फोम में लिपटी होती है. यह प्लास्टिक न सिर्फ मिट्टी और पानी को प्रदूषित करता है, बल्कि सालों-साल तक नष्ट भी नहीं होता. लेकिन अब इस दिशा में एक बहुत ही उत्साहजनक पहल हुई है. देश के प्रमुख संस्थान IIT मद्रास के वैज्ञानिकों ने एक ऐसी जैविक पैकेजिंग सामग्री तैयार की है जो खेती के कचरे से बनी है और पूरी तरह बायोडिग्रेडेबल है.

खेती के फालतू कचरे से बनी पैकेजिंग, जो प्लास्टिक का देगी विकल्प

बिजनेस लाइन की खबर के अनुसार, IIT मद्रास के वैज्ञानिकों ने मशरूम (फफूंद) की जड़ों यानी माइसीलियम और कृषि व कागज के कचरे को मिलाकर एक मजबूत, टिकाऊ और पर्यावरण के अनुकूल पैकेजिंग सामग्री तैयार की है. यह देखने और छूने में प्लास्टिक फोम जैसी ही लगती है, लेकिन इसका नुकसान नहीं, सिर्फ फायदा है.

डॉ. लक्ष्मीनाथ कुंदनटी, जो इस प्रोजेक्ट का नेतृत्व कर रहे हैं, बताते हैं “भारत में हर साल लगभग 350 मिलियन टन कृषि कचरा निकलता है, जिसे आमतौर पर जला दिया जाता है या यूं ही छोड़ दिया जाता है. वहीं, सालाना 4 मिलियन टन से ज्यादा प्लास्टिक वेस्ट बनता है. हमारा प्रयास दोनों समस्याओं का एक साथ हल निकालने का है.”

कैसे बनती है ये जैविक पैकेजिंग?

वैज्ञानिकों ने मशरूम की दो प्रजातियां —Ganoderma lucidum और Pleurotus ostreatus को कृषि अपशिष्ट और पुराने कागज पर उगाया. माइसीलियम यानी मशरूम की जड़ें जब इन कचरे में फैलती हैं, तो वे एक ठोस और हल्की संरचना बना लेती हैं. इस तैयार ढांचे को सुखाकर पैकेजिंग मटेरियल बना लिया जाता है. यह पूरी प्रक्रिया ‘वेस्ट टू वैल्यू’ और ‘सर्कुलर इकोनॉमी’ के विचार को बढ़ावा देती है.

शोध में मिले जबरदस्त परिणाम

अब तक की प्रयोगशाला जांचों में यह जैविक पैकेजिंग पूरी तरह सफल रही है. इसमें अच्छी ताकत (compressive strength), पानी से बचाव (water resistance) और प्राकृतिक रूप से नष्ट होने की क्षमता (biodegradability) पाई गई है.

रिसर्च स्कॉलर सैंड्रा रोज बिबी बताती हैं, “हमने अलग-अलग फफूंद प्रजातियों और अपशिष्ट संयोजनों के साथ प्रयोग किया और देखा कि किससे सबसे बेहतर ताकत, संरचना और टिकाऊपन मिलता है.”

बड़े स्तर पर उत्पादन और मार्केट लॉन्च

फिलहाल यह रिसर्च लैब स्तर तक सीमित है, लेकिन अब इसे औद्योगिक स्तर पर ले जाने की तैयारी चल रही है. टीम इसकी शेल्फ लाइफ बढ़ाने और प्राकृतिक कोटिंग्स लगाने जैसे प्रयोग कर रही है, ताकि यह बाजार में टिके और ग्राहकों को एक भरोसेमंद विकल्प दे सके.

डॉ. कुंदनटी कहते हैं, “यह पैकेजिंग तो शुरुआत है, भविष्य में हम इसी तकनीक से थर्मल इन्सुलेशन और साउंडप्रूफिंग जैसी इंजीनियरिंग सामग्रियां भी बना सकते हैं.”

किसानों और पर्यावरण के लिए फायदेमंद

इस तकनीक से न सिर्फ पर्यावरण को राहत मिलेगी, बल्कि किसानों और ग्रामीण कारीगरों के लिए एक नया व्यवसायिक अवसर भी खुलेगा. कृषि कचरा जो पहले सिर्फ जलाया जाता था, अब आमदनी का जरिया बन सकता है. इससे वायु प्रदूषण में कमी आएगी और जलवायु परिवर्तन से लड़ने में भी मदद मिलेगी.

निम्नलिखित फसलों में से किस फसल की खेती के लिए सबसे कम पानी की आवश्यकता होती है?

Poll Results

गन्ना
0%
धान (चावल)
0%
बाजरा (मिलेट्स)
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केला
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