दिल्ली में हाल ही में दीपावली के बाद हवा इतनी जहरीली हो गई है कि AQI 400 के पार पहुंच गया है, जो हर उम्र के लोगों के लिए बेहद खतरनाक है. सांस लेना भी मुश्किल हो गया है और बच्चे, बुजुर्ग और बीमार सबसे ज्यादा प्रभावित हैं. ऐसे में सरकार और वैज्ञानिकों ने प्रदूषण कम करने और हवा को साफ करने के लिए एक खास तरीका अपनाया है कृत्रिम बारिश यानी क्लाउड सीडिंग. अब लोग जानना चाहते हैं कि आखिर बादलों में पानी कैसे भरा जाता है और यह प्रक्रिया कितनी कारगर है.
बारिश कैसे होती है?
सबसे पहले ये जानना जरूरी है कि बरसात कैसे होती है. सामान्य बारिश तब होती है जब पानी वाष्प रूप में समुद्र, नदियों और पौधों से उठता है और बादल बनाता है. बादलों में पानी के छोटे-छोटे कण जमा होते हैं. जब ये कण आपस में जुड़ते हैं और भारी हो जाते हैं, तो बारिश होती है. अगर तापमान कम हो तो ये बर्फ के रूप में गिरते हैं.
क्लाउड सीडिंग क्या है?
क्लाउड सीडिंग या कृत्रिम बारिश में वैज्ञानिक सिल्वर आयोडाइड जैसी विशेष सामग्री का उपयोग करके बादलों में पानी के कणों को जोड़ते हैं. यह प्रक्रिया प्राकृतिक कंडेंसेशन को तेज करती है, जिससे बादल जल्दी भारी होकर बरसने लगते हैं. इसे एयरप्लेन या रॉकेट के जरिए बादलों में फैलाया जाता है.
पहली बार कब हुई कृत्रिम बारिश?
कृत्रिम बारिश का इतिहास 1946 से शुरू होता है. अमेरिकी वैज्ञानिक डॉ. विंसेन शेफर्ड ने प्लेन से बादलों में ड्राई आइस डाली, जिससे बारिश हुई. इसके बाद डॉ. बेरहार्ड फॉनगुड ने सिल्वर आयोडाइड के जरिए इस तकनीक को और विकसित किया.
क्लाउड सीडिंग कैसे काम करती है?
इस तकनीक का मूल उद्देश्य बादलों को मिलाकर बारिश कराना है. बादल पहले से मौजूद होना चाहिए, क्योंकि क्लाउड सीडिंग केवल बादलों के अंदर पानी के कणों को बढ़ाकर उन्हें बारिश के लिए तैयार कर सकती है. यानी यह बादल नहीं बना सकती.
भारत में क्लाउड सीडिंग का इतिहास
भारत में कृत्रिम बारिश का प्रयोग पहली बार 1983 और 1987 में हुआ. इसके बाद तमिलनाडु, कर्नाटक और महाराष्ट्र जैसे राज्यों ने सूखे के दौरान क्लाउड सीडिंग का इस्तेमाल किया. हाल ही में दिल्ली सरकार ने भी प्रदूषण कम करने के लिए इसका ट्रायल किया और आर्टिफिशियल रेन कराने की तैयारी है.
कृत्रिम बारिश से प्रदूषण में कमी
कृत्रिम बारिश का एक बड़ा फायदा यह है कि यह हवा में तैर रहे हानिकारक कणों को नीचे गिरा देती है. परिणामस्वरूप हवा साफ हो जाती है और AQI कम होता है. हालांकि इसका असर केवल 7-10 दिन तक ही रहता है.
खर्च कितना आता है?
एक वर्ग किलोमीटर में कृत्रिम बारिश कराने का खर्च लगभग 1 लाख रुपये होता है. अगर पूरे शहर में इसे लागू किया जाए तो दिल्ली जैसे शहर में खर्च 15 करोड़ रुपये तक पहुंच सकता है. कुछ हिस्सों में क्लाउड सीडिंग कराने पर यह 5-7 करोड़ रुपये में संभव है.
व्यक्तिगत और अंतरराष्ट्रीय उपयोग
कुछ देशों में क्लाउड सीडिंग का निजी उपयोग भी होने लगा है. उदाहरण के लिए, फ्रांस में शादियों या बड़े इवेंट्स में बारिश को नियंत्रित करने के लिए इसे इस्तेमाल किया जाता है. चीन ने बीजिंग ओलंपिक के दौरान बारिश रोकने के लिए क्लाउड सीडिंग का प्रयोग किया.