गाजरघास (Parthenium hysterophorus) एक ऐसा जहरीला खरपतवार है, जो न केवल फसलों की उत्पादकता को कम करता है बल्कि मनुष्य, पशु और पर्यावरण के लिए भी घातक है. समय रहते इस पर नियंत्रण न किया जाए, तो यह खेतों की उर्वरता को खत्म कर देता है. इसी गंभीर खतरे को देखते हुए कृषि विज्ञान केन्द्र, ग्वालियर द्वारा गाजरघास जागरूकता सप्ताह का आयोजन किया गया. इस अभियान का उद्देश्य किसानों को गाजरघास की पहचान, उसके जैविक व रासायनिक नियंत्रण तथा उपयोगी प्रबंधन तकनीकों से अवगत कराना था. सप्ताह भर चले इस कार्यक्रम के समापन अवसर पर घांटीगांव विकासखंड के ग्राम रेंह का पुरा में जागरूकता कार्यक्रम आयोजित हुआ, जिसमें विशेषज्ञों ने खेतों को गाजरघास से बचाने के कई उपाय साझा किए.
जागरूकता सप्ताह की शुरुआत और उद्देश्य
गाजरघास जागरूकता सप्ताह की शुरुआत कृषि विज्ञान केन्द्र, ग्वालियर के परिसर में गाजरघास पर रासायनिक उर्वरकों का छिड़काव कर की गई. इसका मकसद था कि किसानों को यह दिखाया जाए कि कैसे इस खरपतवार को नियंत्रित किया जा सकता है. इस पूरे सप्ताह के दौरान जिले के विभिन्न गांवों में जनजागरण अभियान चलाया गया, जिसमें किसानों, छात्रों और ग्रामीणों को इस खरपतवार के हानिकारक प्रभावों और नियंत्रण विधियों के बारे में जानकारी दी गई.
रेंह का पुरा गांव में हुआ समापन कार्यक्रम
सप्ताह के अंतिम दिन रेंह का पुरा गांव में जागरूकता कार्यक्रम का आयोजन हुआ. इसमें कुल 150 किसान और छात्र शामिल हुए. कार्यक्रम की अध्यक्षता कृषि विज्ञान केन्द्र के वरिष्ठ वैज्ञानिक एवं प्रमुख डॉ. शैलेन्द्र सिंह कुशवाह ने की. उन्होंने गाजरघास के भौतिक, रासायनिक और जैविक प्रबंधन की विस्तृत जानकारी दी. डॉ. कुशवाह ने बताया कि यह खरपतवार न केवल फसल उत्पादन को प्रभावित करता है, बल्कि मानव स्वास्थ्य, पशुओं और जैव विविधता के लिए भी गंभीर खतरा है.
गाजरघास से खाद और जैविक खेती में उपयोग
डॉ. अमिता शर्मा, वैज्ञानिक (कृषि वानिकी) ने बताया कि गाजरघास को पूरी तरह हानिकारक मानने के बजाय यदि इसे सही तरीके से उपयोग किया जाए, तो यह जैविक खेती में मददगार भी हो सकता है. उन्होंने बताया कि फूल आने से पहले इस खरपतवार से पोषक तत्वों से भरपूर हरी खाद, लाइव मल्च और जैविक उर्वरक तैयार किया जा सकता है. इससे न केवल गाजरघास की वृद्धि रोकी जा सकती है, बल्कि इसे एक संसाधन के रूप में इस्तेमाल कर खेतों की उर्वरता भी बढ़ाई जा सकती है.
जैविक नियंत्रण: मैक्सिकन बीटल की भूमिका
कार्यक्रम में मैक्सिकन बीटल (Zygogramma bicolorata) की भी चर्चा की गई, जो गाजरघास के जैविक नियंत्रण में प्रभावी भूमिका निभाता है. यह बीटल गाजरघास की पत्तियों को खाकर उसके विकास को रोक देता है. वैज्ञानिकों ने किसानों को इस कीट की पहचान करने और उसे नियंत्रित ढंग से अपने खेतों में उपयोग करने के तरीके बताए. जैविक उपायों को अपनाने से रसायनों पर निर्भरता कम होती है और पर्यावरण भी सुरक्षित रहता है.
रासायनिक नियंत्रण के सुरक्षित उपाय
कृषि केन्द्र के वैज्ञानिक डॉ. राजीव सिंह चौहान ने गाजरघास के रासायनिक नियंत्रण की जानकारी दी. उन्होंने बताया कि खरपतवार की प्रारंभिक अवस्था में 15 प्रतिशत नमक के घोल का छिड़काव करना असरदार होता है. वहीं, जब यह बड़ी मात्रा में फैल जाए या फूल आ जाएं, तब ग्लाइफोसेट 41 फीसदी दवा का खाली या मेड़ों वाले क्षेत्रों में छिड़काव करना चाहिए. उन्होंने यह भी बताया कि इन उपायों का प्रयोग सावधानीपूर्वक और सही मौसम में किया जाए, तभी इनका असर दिखाई देता है.
किसानों की समस्याओं का वैज्ञानिक समाधान
कार्यक्रम के अंत में किसानों द्वारा बाजरा, धान, मूंग, तिल जैसी फसलों में आ रही समस्याओं को लेकर प्रश्न पूछे गए, जिनका समाधान वैज्ञानिकों ने पर ही दिया. नाडेप विधि से खाद बनाने की जानकारी भी दी गई, जिससे खेत की उपजाऊ शक्ति को बढ़ाया जा सके. बच्चों और ग्रामीण युवाओं ने भी कार्यक्रम में उत्साहपूर्वक भाग लेकर वैज्ञानिकों से प्रश्न पूछे और कृषि विज्ञान के प्रति अपनी रुचि जताई.