Mushroom Waste Management : अक्सर किसान मशरूम की खेती के बाद बचे अवशेष को बेकार समझकर फेंक देते हैं या खेत से बाहर कर देते हैं. लेकिन यही अवशेष अगर सही तरीके से इस्तेमाल कर लिया जाए, तो यह खेतों के लिए किसी वरदान से कम नहीं है. मशरूम उत्पादन के बाद बचा अवशेष अब जैविक खाद के रूप में किसानों के लिए बड़ी काम की चीज बनता जा रहा है. इससे न सिर्फ मिट्टी की ताकत बढ़ती है, बल्कि फसलों की पैदावार में भी साफ इजाफा देखा जा रहा है.
स्पेंट मशरूम सब्सट्रेट क्या होता है
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, मशरूम उगाने के बाद जो पदार्थ बचता है, उसे स्पेंट मशरूम सब्सट्रेट कहा जाता है. यह गेहूं का भूसा, धान का पुआल, गन्ने की खोया और लकड़ी के बुरादे जैसे जैविक पदार्थों से तैयार होता है. मशरूम की फसल लेने के बाद यह अवशेष पोषक तत्वों से भरपूर रहता है. इसमें नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटैशियम जैसे जरूरी तत्व मौजूद होते हैं, जो फसलों की बढ़वार में मदद करते हैं.
ऐसे बनता है जैविक खाद
स्पेंट मशरूम सब्सट्रेट को सीधे खेत में डालने की बजाय पहले उसे सड़ाना जरूरी होता है. इसके लिए इसे खुले और छायादार स्थान पर दो से तीन महीने तक ढेर बनाकर रखा जाता है. इस दौरान नमी बनाए रखना जरूरी होता है, ताकि यह अच्छे से गल जाए. धीरे-धीरे यह अवशेष जैविक खाद में बदल जाता है. तैयार खाद हल्की, भुरभुरी और बिना बदबू की होती है, जिसे खेतों में आसानी से डाला जा सकता है.
मिट्टी की सेहत और पैदावार दोनों में सुधार
मीडिया रिपोर्ट्स में बताया गया है कि इस जैविक खाद को खेत में डालने से मिट्टी की बनावट में बड़ा सुधार होता है. मिट्टी भुरभुरी बनती है, जिससे पानी और हवा का संचार बेहतर होता है. पौधों की जड़ें मजबूत होती हैं और पोषक तत्वों को आसानी से कर पाती हैं. इसका सीधा असर फसल की बढ़वार और पैदावार पर पड़ता है. किसान एक एकड़ खेत में करीब 2 से 3 टन तक इस खाद का उपयोग कर सकते हैं.
रासायनिक खाद पर खर्च होगा कम
स्पेंट मशरूम सब्सट्रेट के इस्तेमाल से किसानों की रासायनिक खादों पर निर्भरता कम हो जाती है. इससे खेती की लागत घटती है और जमीन की उर्वरता लंबे समय तक बनी रहती है. जैविक खाद के इस्तेमाल से मिट्टी की प्राकृतिक ताकत बढ़ती है, जो आने वाली फसलों के लिए भी फायदेमंद होती है. मशरूम के बचे अवशेष को बेकार समझने की बजाय अगर किसान इसका सही उपयोग करें, तो यह खेती के लिए बड़ी सौगात साबित हो सकता है. कम खर्च, बेहतर पैदावार और मिट्टी की सेहत-इन तीनों फायदे के साथ यह तरीका जैविक खेती को बढ़ावा देने में भी अहम भूमिका निभा रहा है.