Farming Tips: रबड़ का नाम सुनते ही सबसे पहले दिमाग में टायर, पाइप या ग्लव्स जैसी चीजें आती हैं, लेकिन क्या आप जानते हैं कि यह सब एक ऐसे पेड़ के दूध जैसे रस से बनता है? इसे लेटेक्स (Latex) कहा जाता है. रबड़ का पेड़ न सिर्फ खूबसूरत होता है बल्कि आर्थिक रूप से भी बेहद मूल्यवान है. यही वजह है कि इसे किसानों के बीच ‘सफेद सोना’ कहा जाता है. यह पौधा सालभर हरा रहता है और पर्यावरण को भी लाभ पहुंचाता है.
भारत में रबड़ की शुरुआत और इतिहास
भारत में रबड़ की खेती की शुरुआत 1876 में हुई थी जब सर हेनरी विलियम ब्राजील के पारा क्षेत्र से इसके बीज लेकर आए थे. सबसे पहले रबड़ का पौधा केरल के उत्तरी त्रावणकोर के पेरियार तट पर लगाया गया था. इसके बाद धीरे-धीरे यह पौधा दक्षिण भारत के अन्य राज्यों तक फैल गया.
आज रबड़ की खेती मुख्य रूप से केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु में की जाती है. वहीं पूर्वोत्तर भारत में असम और त्रिपुरा भी रबड़ उत्पादन के प्रमुख केंद्र बन रहे हैं. इनमें से केरल देश का सबसे बड़ा रबड़ उत्पादक राज्य है, जो कुल राष्ट्रीय उत्पादन का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा देता है.
रबड़ की खेती के लिए अनुकूल जलवायु और मिट्टी
रबड़ के पौधे को उष्णकटिबंधीय और आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है. यानी जहां तापमान 25 से 35 डिग्री सेल्सियस और सालभर में लगभग 200 सेंटीमीटर वर्षा होती हो. हल्की ढलान वाली दोमट या लाल मिट्टी जिसमें जल निकास अच्छा हो, वह रबड़ के लिए सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है. यह पौधा भूमध्य रेखा के करीब के क्षेत्रों में अधिक फलता-फूलता है, इसलिए दक्षिण भारत इसके लिए आदर्श माना जाता है.
रोपाई का समय और दूरी
रबड़ के पौधों की रोपाई जून-जुलाई में की जाती है, जब मानसून की शुरुआत होती है. पहाड़ी क्षेत्रों में पौधों के बीच की दूरी 6.7 मीटर x 3.4 मीटर रखी जाती है, जबकि समतल क्षेत्रों में 4.9 मीटर x 4.9 मीटर की दूरी पर्याप्त होती है. रबड़ की नर्सरी बीज से तैयार की जाती है और पौधों को कलम विधि (Grafting) के माध्यम से भी लगाया जाता है ताकि अच्छी गुणवत्ता वाली फसल मिल सके.
खाद और देखभाल से बढ़ती पैदावार
रबड़ के पौधों की अच्छी बढ़वार के लिए गोबर की खाद या वर्मी कम्पोस्ट बेहद फायदेमंद होती है. खेत की मिट्टी का परीक्षण कर आवश्यकतानुसार नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटाश आधारित उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए. पौधों के आसपास खरपतवार न बढ़े इसके लिए समय-समय पर निराई-गुड़ाई करना जरूरी है. शुरुआती दिनों में नियमित सिंचाई की आवश्यकता होती है ताकि पौधों में नमी बनी रहे.
लेटेक्स संग्रह और उत्पादन की प्रक्रिया
रबड़ के पेड़ों से जब लेटेक्स निकालने का समय आता है, तो पेड़ की छाल को तिरछा काटा जाता है और उससे निकलने वाला दूधनुमा रस पात्रों में इकट्ठा किया जाता है. इस प्रक्रिया को ‘टैपिंग’ कहा जाता है. आम तौर पर रबड़ के पेड़ रोपाई के 7वें से 8वें वर्ष में लेटेक्स देना शुरू कर देते हैं और इसकी उत्पादन क्षमता करीब 25 से 30 वर्ष तक बनी रहती है.
पैदावार और आर्थिक लाभ
दक्षिण भारत में रबड़ की औसत पैदावार 375 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रहती है. अगर पौधे बीज के बजाय कलम विधि से लगाए गए हों, तो पैदावार बढ़कर 800 से 1000 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक पहुंच सकती है. बाजार में कच्चे रबड़ की कीमत अच्छी होने के कारण किसानों को प्रति हेक्टेयर लाखों रुपये तक का मुनाफा हो सकता है.