Makhana Farming : कभी पूजा-पाठ और व्रत तक सीमित रहने वाला मखाना आज सुपरफूड बनकर देश-विदेश की थाली में पहुंच चुका है. बिहार के मिथिलांचल इलाके से निकलकर मखाना ने ऐसा स्वाद और पहचान बनाई है कि GI टैग मिलने के बाद इसकी मांग तेजी से बढ़ी है. खास बात यह है कि देश का करीब 80 फीसदी मखाना यहीं उगता है. बढ़ती मांग के साथ अब किसान भी पारंपरिक तरीके से आगे बढ़कर इसे कमाई का मजबूत जरिया बना रहे हैं.
GI टैग से बढ़ी पहचान और कीमत
GI टैग मिलने के बाद मिथिलांचल (Mithilanchal Farmers) के मखाना को नई पहचान मिली है. इससे इसकी गुणवत्ता पर लोगों का भरोसा बढ़ा है और बाजार में दाम भी पहले से बेहतर हुए हैं. जो मखाना कभी सिर्फ स्थानीय बाजारों तक सीमित था, वह अब बड़े शहरों और विदेशों तक पहुंच रहा है. किसानों का कहना है कि GI टैग के बाद व्यापारियों की दिलचस्पी बढ़ी है और अब सीधे खेत से खरीद हो रही है. इससे बिचौलियों की भूमिका कम हुई है और किसानों को अपनी उपज का सही दाम मिलने लगा है. नतीजतन, मखाना की खेती किसानों के लिए फायदे का सौदा बनती जा रही है.
तालाब चुनना है खेती का पहला कदम
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, मखाना की खेती ज्यादातर तालाबों में होती है. कुछ जगहों पर किसान गड्ढे खोदकर पानी भरकर भी खेती करते हैं. सबसे पहले किसान तालाब की तलाश करते हैं और उसके मालिक से लीज पर लेते हैं. आमतौर पर एक कट्टा के लिए 300 से 400 रुपये प्रति पैदावार दिए जाते हैं. लीज मिलने के बाद तालाब पर किसान का अधिकार होता है और वही खेती की पूरी जिम्मेदारी संभालता है.
बीज डालने से बढ़वार तक का सफर
मखाना के बीज पानी में 1-2 इंच नीचे छोड़े जाते हैं. खेती के लिए मार्च और सितंबर सबसे अच्छे महीने माने जाते हैं. बीज डालने के बाद करीब 6 महीने तक इंतजार करना पड़ता है. इस दौरान तालाब में पानी का स्तर बनाए रखना जरूरी होता है. पानी कम हो तो किसान खुद पानी भरते हैं. साथ ही जरूरत के अनुसार खाद और कीट नियंत्रण का भी ध्यान रखा जाता है, ताकि फसल अच्छी हो. करीब 6 महीने बाद मखाना पानी से निकाला जाता है. इसके बाद इसे हाथों या मशीन से फोड़ा जाता है, जैसे नारियल से गिरी निकाली जाती है. मखाना का दाना सुपारी जैसा होता है. फिर इसे अच्छे से सुखाया जाता है, जिससे स्वाद और गुणवत्ता निखरती है. आखिरी चरण में पैकेजिंग होती है. पूरी प्रक्रिया में 6 से 8 महीने का समय लगता है.